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________________ कारिका-२३ ] तत्त्वदीपिका १७५ अपेक्षासे सब पृथक् पृथक् हैं। क्योंकि कुण्डलका जो काम है वह कुण्डल ही कर सकता है, कटक नहीं। इससे यह सिद्ध होता है कि स्वर्ण कथंचित् अनेक है। जब द्रव्याथिकनय और पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षासे स्वर्णका क्रमसे प्रतिपादन करना विवक्षित हो तो स्वर्ण कथंचिदुभय सिद्ध होता है । यदि दोनों नयोंकी दृष्टिसे स्वर्णका युगपत् कथन विवक्षित हो तो स्वर्णको अवक्तव्य ही मानना होगा। प्रधानरूपसे दो धर्मोंका कथन एक ही समयमें एक शब्दके द्वारा संभव नहीं है। इसी प्रकार स्वर्ण कथचित् एक-अवक्तव्य, कथंचित् अनेक-अवक्तव्य और कथंचित् एक-अनेकअवक्तव्य है। द्रव्यार्थिक नयके साथ दोनों नयोंकी युगपत् विवक्षा होनेसे स्वर्ण कथंचित् एक-अवक्तव्य है। पर्यायार्थिक नयके साथ दोनों नयोंकी युगपत् विवक्षा होनेसे स्वर्ण कथंचित् अनेक-अवक्तव्य है। दोनों नयोंकी पहले क्रमशः, और पुनः युगपत् विवक्षा होनेसे स्वर्ण कथंचित् एक-अनेक-अवक्तव्य है। एकत्व अनेकत्वका अविनाभावी है, और अनेकत्व एकत्वका अविनाभावी है। एकत्व और अनेकत्व दोनों एक द्रव्यमें विशेषण होते हैं। इस प्रकार सत्त्व, एकत्व आदि धर्मोको लेकर सप्तभंगोकी जो प्रक्रिया है वही प्रक्रिया अन्य सप्तभंगियोंमें भी लगाना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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