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कारिका - २४ ।
तत्त्वदीपिका
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की प्रतीति होती है । एक ही पुरुषमें देशादिकी अपेक्षासे गमन, अगमन आदि क्रियायें भी एक समयमें बन जाती हैं । उसी प्रकार एक ब्रह्ममें क्रिया, कारक आदिका भेद होनेपर भी कोई विरोध नहीं है । क्योंकि चित्रज्ञानकी तरह विचित्र प्रतिभास होने पर भी उसके एकत्वमें कोई व्याघात नहीं होता है ।
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ऐसा कहने वालेसे हम पूँछ सकते हैं कि क्रिया, कारक आदिका भेद किसीसे उत्पन्न होता है या नहीं । यदि वह किसीसे उत्पन्न नहीं होता है, तो उसे नित्य मानना चाहिए। किन्तु क्रिया, कारक आदिके भेदको नित्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि उसकी प्रतीति कभी कभी होती है । जिसकी प्रतीति कभी कभी होती है वह नित्य नहीं हो सकता । उक्त भेदको अनित्य मानने पर उसकी उत्पत्तिका प्रश्न उपस्थित होता है | यदि क्रिया, कारक आदिके भेदकी उत्पत्ति अद्वैतमात्र तत्त्वसे होती है, तो यहाँ दो विकल्प होते हैं - अद्वैत और उसके कार्य में भेद है या अभेद । प्रथम पक्ष में अद्वैत और उसके कार्य में भेद होने से द्वैतकी सिद्धि होना अनिवार्य है । द्वितीय पक्षमें अद्वैतके कार्यको अद्वैतसे अभिन्न मानने पर यह अर्थ फलित होता है कि स्वकी उत्पत्ति स्वसे होती है । किन्तु ऐसा कभी नहीं देखा गया । यदि अद्वैत तत्त्व अपने कार्य से अभिन्न है, तो वह नित्य कैसे हो सकता है । इस दोषको दूर करने के लिए क्रिया, कारक आदिके भेदकी उत्पत्ति अन्य किसी पर पदार्थ से मानने पर भी अद्वैत तथा परके भेदसे द्वैतकी सिद्धिका प्रसंग पुनः आता है । इस प्रकार अद्वैतवादीकी दोनों ओरसे स्वपक्ष हानि होती है । क्रिया, कारक आदिका भेद न स्वतः होता है और न परत: होता, किन्तु होता अवश्य है, ऐसा कहनेवाला अद्वैतवादी केवल अपनी अज्ञता ही प्रगट करता है । जब कादाचित्क भेदका सद्भाव है, तो उसकी उत्पत्ति भी किसी न किसी हेतु से होगी ही । जो वस्तु प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे विरुद्ध होती है उसकी सत्ता किसी भी प्रकार संभव नहीं है । अद्वैतमात्र तत्त्वको मानने में क्रिया, कारक आदिके प्रत्यक्षादि प्रमाणसिद्ध भेद द्वारा स्पष्ट रूपसे विरोध
१. वृक्षस्तिष्ठति कानने कुसुमिते वृक्षं लताः संश्रिताः, वृक्षेणाभिहतो गजो निपतितो वृक्षाय देयं जलम् । वृक्षादानय मंजरी कुसुमितां वृक्षस्य शाखोन्नताः, वृक्षे नीडमिदं कृतं शकुनिना हे वृक्ष किं कम्पसे |1 १२
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