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कारिका-२०] तत्त्वदीपिका
१६९ वही धूम हेतु है, और वही धूम अहेतु भी है। अपेक्षाके भेदसे उसी धूम को हेतु और अहेतु माननेमें कोई विरोध नहीं है । विरोध तो तब होता जब धूमको वह्निका हेतु और वह्नि का ही अहेतु माना जाता । उसी प्रकार वस्तुको भी कर्थचित अस्तित्व और नास्तित्वरूप माननेमें किञ्चिन्मात्र भी विरोध नहीं है। वस्तुमें अस्तित्व दसरी अपेक्षासे है,
और नास्त्वि दूसरी अपेक्षासे है। अस्तित्व और नास्तित्व वस्तुके विशेषण हैं, और वस्तु विशेष्य है। वस्तु निरंश और निरभिलाप्य नहीं है, किन्तु सांश और शब्दगोचर है। .. . शेषभंगोंका निरूपण करनेके लिए आचार्य कहते हैं
शेषभङ्गाश्च नेतव्या यथोक्तनययोगतः ।
न च कश्चिद्विरोधोऽस्ति मुनीन्द्र तव शासने ॥२०॥ यथोक्त नयके अनुसार शेष भंगोंको भी लगा लेना चाहिए। हे भगवन् ! आपके शासनमें किसी प्रकारका विरोध नहीं है।
पहले प्रथम तीन भंगोंका विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है। अस्तित्व नास्तित्वका अविनाभावी है, तथा नास्तित्व अस्तित्वका अविनाभावी है । अस्तित्व और आस्तित्व वस्तुके विशेषण हैं । वस्तु उभयरूप तथा शब्दका विषय है, अर्थात् अस्तित्व-नास्तित्वरूपसे वक्तव्य है । वस्तु अवक्तव्य भी है, क्योंकि अवक्तव्यत्व वस्तुका विशेषण होता है, और अपने प्रतिषेध्य वक्तव्यत्वका अविनाभावी है, वस्तु सदवक्तव्य है, और अपने प्रतिषेध्य असदवक्तव्यका अविनाभावी है। वस्तु असदवक्तव्य भी है, क्योंकि असदवक्तव्यत्व वस्तुका विशेषण होता है, और अपने प्रतिषेध्य सदवक्तव्यत्वका अविनाभावी है । इसी प्रकार वस्तु सदसदवक्तव्य भी है । सातों भंग वस्तुके विशेषण होते हैं। और वे अपने-अपने प्रतिषेध्यके अविनाभावी हैं, जैसे कि हेतुमें साधर्म्य वैधयंका अविनाभावी होता है, और वैधर्म्य साधर्म्यका अविनाभावी होता है । इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान्के शासनमें अनेकान्तात्मक वस्तुको सिद्धि होती है । वस्तुमें अनन्त धर्म पाये जाते हैं। उनमेंसे प्रत्येक धर्मकी अपेक्षासे सात-सात भङ्ग होते हैं । और वस्तुगत अनन्त धर्मोकी अपेक्षासे अनन्त सप्तभङ्गियाँ होती हैं । वही वस्तु सत् भी होती है और वही वस्तु असत् भी । अपेक्षा भेदसे एक ही वस्तुको सत् तथा असत् मानने में कोई विरोध नहीं है। कारिकामें जो 'विरोध' शब्द दिया गया है वह उपलक्षण है। जहाँ किसी वस्तु या
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