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________________ १६८ आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१ ही प्रतीति होती है। और अस्तित्व-नास्तित्व आदि विशेषणोंका ज्ञान केवल सविकल्पक प्रत्यक्षके द्वारा होता है । यथार्थमें निर्विकल्पक प्रत्यक्षके द्वारा निरंश स्वलक्षणका जो ज्ञान होता है वह सत्य ज्ञान है । और सविकल्पक प्रत्यक्षके द्वारा जो अस्तित्व आदि अंश सहित स्वलक्षणका ज्ञान होत है वह मिथ्या है। बौद्धोंका उक्त कथन नितान्त अयुक्त है। यदि वस्तु यथार्थमें निरंश है, तो निर्विकल्पकके बादमें होनेवाले सविकल्पक प्रत्यक्षके द्वारा भी उसमें अंशोंकी कल्पना कैसे की जा सकती है। निर्विकल्पक प्रत्यक्षके द्वारा पीतका ज्ञान होने पर तत्पृष्ठभावी सविकल्पक प्रत्यक्षके द्वारा भी उसमें पीतका ही ज्ञान होता है, नीलका नहीं। जब कोई वस्तु किसी विशेषणसे सहित ग्रहण की जाती है तो विशेषण, विशेष्य और उनके सम्बन्ध आदिका ज्ञान होना आवश्यक है। और विशेषणोंका पृथक् पृथक् ज्ञान होना भी आवश्यक है। यदि सविकल्पक प्रत्यक्षके द्वारा अस्तित्व, नास्तित्व आदि विशेषणोंकी प्रतीति होती है, तो निर्विकल्पकके द्वारा भी उनकी प्रतीति होना चाहिए। स्वलक्षणका ही प्रत्यक्ष होता है, अस्तित्व, नास्तित्व आदि विशेषणोंका नहीं। ऐसा मानना ठीक नहीं है। अस्तित्व और नास्तित्व तो वस्तु की आत्मा हैं, उनके अभावमें वस्तुका अपना कुछ भी स्वरूप शेष नहीं रहता है। यह अनुभव सिद्ध बात है कि वस्तुमें सत् और असत् दोनों अंशोंकी प्रतीति होती है । वस्तु न केवल सामान्यमात्र है, और न विशेषमात्र, किन्तु उभयात्मक है। समान्य और विशेष पृथक्-पृथक भी नहीं हैं, दोनोंमें तदात्म्य सम्बन्ध है । सामान्यविशेषात्मक वस्तु प्रत्यक्ष, शब्द आदिके द्वारा जानी जाती है। प्रत्यक्ष और शब्दका विषय भिन्न-भिन्न नहीं है, किन्तु वही वस्तु प्रत्यक्षका विषय होती है, और वही वस्तु शब्दके द्वारा जानी जाती है। इतना आवश्य है कि दोनों ज्ञानोंमें प्रतिभास भेद पाया जाता है। प्रत्यक्षके द्वारा स्पष्ट प्रतिभास होता है, और शब्दके द्वारा अस्पष्ट प्रतिभास होता है । जैसे एक ही वृक्षमें दूरसे देखने वाले पुरुषको अस्पष्ट ज्ञान और समीपसे देखने वाले पुरुषको स्पष्ट ज्ञान होता है। यहाँ वृक्षके एक होनेपर भी कारणके भेदसे ज्ञान भिन्न-भिन्न होता है। ___ तात्पर्य यह है कि अपेक्षाभेदसे तत्त्व व्यवस्थामें कोई विरोध नहीं आता है। धूम वह्निका हेतु होता है, और जलका हेतु नहीं होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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