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________________ १७० आप्तमीमांसा [ परिच्छेद- १ I धर्मके कहनेपर अन्य वस्तुओं और धर्मोंका भी ग्रहण होता है, वह उपलक्षण कहलाता है । जैसे 'काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम् ।' 'कौओंसे दधिको रक्षा करो।' उक्त वाक्यमें कौआ शब्दसे केवल कौआका ही ग्रहण नहीं होता है, किन्तु दधिभक्षक बिल्ली आदि सब प्राणियों का ग्रहण होता है । कहने वालेका तात्पर्य यह है कि कौआ, बिल्ली आदि समस्त दधिभक्षक प्राणियोंसे दधिकी रक्षा करना है । इसी प्रकार 'विरोध' शब्दसे संकर आदि अन्य दोषोंका ग्रहण किया जाता है । कुछ लोग वस्तुको सत्-असत् आदि रूप माननेमें विरोध, वैयधिकरण्य, अनवस्था, संकर, व्यतिकर, संशय, अप्रतिपत्ति और अभाव इस प्रकार आठ दोष बतलाते हैं । जो लोग वस्तुमें उक्त दोषोंको बतलाते हैं वे अपनी अनभिज्ञता ही प्रकट करते हैं । यह पहले विस्तार पूर्वक बतलाया जा चुका है कि एक ही वस्तुको अपेक्षा भेदसे सत्, असत् आदिरूप माननेमें किसी भी प्रकारका विरोध नहीं है । और विरोधके अभाव में अन्य 1 दोषोंका परिहार भी स्वतः हो जाता है । इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान्के शासनमें अर्थात् वस्तुको अनेकान्तात्मक मानने में कोई विरोध नहीं है । अनेकान्तात्मक वस्तुको अर्थ क्रियाकारी बतलाते हुए आचार्य एकान्तरूप वस्तुमें अर्थक्रियाकानिषेध करते हैं एवं विधिनिषेधाभ्यामनवस्थितमर्थकृत् । नेति चेन्न यथा कार्यं बहिरन्तरुपाधिभिः || २१॥ इस प्रकार विधि और निषेधके द्वारा अनवस्थित अर्थात् उभयरूप जो अर्थ है वही अर्थक्रियाकारी होता है । अन्यथा नहीं । जैसेकि बहिरंग और अन्तरंग दोनों कारणोंके बिना कार्यकी निष्पत्ति नहीं होती है | पदार्थ न केवल विधिरूप है, और न निषेधरूप, किन्तु दोनों रूप है । जो लोग पदार्थको विधिरूप ही मानते हैं, अथवा निषेधरूप ही मानते हैं, उनके यहाँ पदार्थ अपना कार्य नहीं कर सकते हैं । जो पदार्थ सर्वथा सत् है वह सदा सत् ही रहेगा । उसमें कुछ भी परिवर्तन संभव नहीं है । जो सर्वथा सत् है, किसी रूपसे भी असत् नहीं है, उसकी उत्पत्ति और विनाश भी संभव नहीं है । वह तो सदा अपनी उसी अवस्थामें रहेगा, उसमें किञ्चन्मात्र भी विकार होने की संभावना नहीं है । इसी प्रकार जो पदार्थ सर्वथा असत् है, वह आकाशपुष्पके समान है । उसकी भी उत्पत्ति, स्थिति और विनाश संभव नहीं है । असत् पदार्थ की कभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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