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________________ १५० आप्तमीमांसा [ परिच्छेद- १ और धारणा भी उसीमें होते हैं, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान आदि भी उसीमें होते हैं । दर्शन, अवग्रह आदि तथा स्मृति आदि समस्त पर्यायों में एक ही आत्मा मणियोंमें तन्तुकी तरह विद्यमान रहता है । जो दृष्टा होता है, वही अगृहीता होता है । यदि ऐसा न हो तो 'यदेव दृष्ट' तदेव अवगृहीतं' 'जिस वस्तुका दर्शन किया, अवग्रह भी उसी का किया', तथा 'अहमेव दृष्टा अहमेव अवगृहीता' 'मैं ही दृष्टा हूँ, और मैं ही अवगृहीता हूँ,' इस प्रकारका प्रत्यभिज्ञान नहीं होना चाहिए | नैयायिकोंने भी माना है कि दर्शन और स्पर्शनके द्वारा एक ही अर्थका ग्रहण' होनेसे दोनों अवस्थाओंमें रहने वाला आत्मा एक ही है । 'यदेव मया दृष्ट ं तदेव स्पृशामि ' 'जिसको मैंने प्रातः देखा था, उसीका सायं स्पर्श कर रहा हूँ इस प्रकार का प्रत्यभिज्ञान दोनों अवस्थाओं ( दर्शन और स्पर्शन अवस्था ) में एक ही आत्मा विना कैसे संभव है । इसलिए दर्शन, अवग्रह, स्मृति आदि अवस्थाओंमें एक ही आत्माका मानना आवश्यक है । मैं सुखी हूँ, में दुःखी हूँ, मैं ज्ञानवान् हूँ, मैं दर्शनवान् हूँ, इस प्रकार सुख, दुःखादि पर्यायोंको अनुभव करनेवाला आत्मा अनादि निधन है, और सब लोगोंको अपने अपने अनुभवसे प्रत्यक्ष है । परस्परमें भिन्न सहभावी गुण और क्रमभावी पर्यायें आत्मासे उसी प्रकार अभिन्न हैं, जिस प्रकार बौद्धों यहाँ चित्रज्ञानसे नील, पीत आदि आकार अभिन्न हैं । यदि क्रमसे होनेवाले सुख, दुःखादि और मति, श्रुत आदि गुणों और पर्यायोंका आत्माके साथ एकत्व नहीं है, तो अनेक पुरुषोंके समान एक पुरुषमें भी इनकी एक सन्तान सिद्ध नहीं हो सकती है । जिस प्रकार कि नील, पोत आदि आकारोंका चित्र ज्ञानके साथ यदि एकत्व नहीं है तो उसे चित्रज्ञान ही नहीं कह सकते हैं । आत्मामें जो हर्ष, विषाद आदि पर्यायें होती हैं उनमें भी परस्परमें सत्त्व, द्रव्यत्व, चेतनत्व आदिकी अपेक्षासे अभेद है । यदि ऐसा न हो तो हर्ष, विषाद आदि विषयक नाना प्रकारकी प्रतिपत्ति नहीं होना चाहिए | किन्तु ऐसा देखा जाता है कि मुझे जिस विषयमें पहिले हर्ष हुआ था उसी विषय में द्वेष, भय आदि होता है । तथा जिस आत्मामें पहले हर्ष हुआ था उसीमें द्वेष, भय आदि होता है । इसलिये ऐसा नहीं है कि कोई आत्मा नामका तत्त्व ही न हो, किन्तु सुख, दुखादि पर्यायोंको अनुभव करने वाला आत्मा नामका तत्त्व प्रत्यक्षसिद्ध है और कथंचित् सत् है । १. दर्शनस्पर्शस्नाभ्यामेकार्थग्रहणात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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