SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 268
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कारिका-१४] तत्त्वदीपिका जिस प्रकार आत्म-तत्त्व कथंचित् सत् है, उसीप्रकार अन्य अजीवादि तत्त्व भी कथंचित् सत् हैं । जीवादि तत्त्व सर्वथा सत् नहीं हैं। यदि जीव तत्त्व सर्वथा सत् हो, तो जिस प्रकार वह जीवत्वेन सत् है, उसी प्रकार अजीवत्वेन भी सत् होगा। इस प्रकार सब तत्त्वोंमें शंकर दोषका आना अनिवार्य है। यदि इस दोषका परिहार इष्ट है, तो जीवादि तत्त्वोंको कथंचित् सत् मानना ही होगा । जितने भी जीवादि तत्त्व हैं वे सब सजातीय और विजातीय तत्त्वोंसे व्यावृत्त हैं। इसलिए जगत् अन्योन्याभावरूप है । यदि एक पदार्थका दूसर पदार्थमें अभाव न हो तो सब पदार्थोंमें एकत्वका प्रसंग अनिवार्य है। ऐसा मानना भी ठीक नहीं है कि जगत् सर्वथा उभयात्मक (सदसदात्मक) है । क्योंकि सर्वथा सदसदात्मक माननेसे जिसरूपसे जगत् सत् है उसरूपसे असत् भी होगा और जिसरूपसे असत् है उसरूपसे सत् भी होगा । ऐसा मानने में विरोध स्पष्ट है। अतः द्रव्यनय और पर्यायनयकी अपेक्षासे तत्त्व कथंचित् सदसदात्मक है। द्रव्यनयकी अपेक्षासे सब तत्त्व सत् हैं और पर्यायनयकी अपेक्षासे असत् हैं । भावाभावस्वभाव रहित जात्यन्तररूप वस्तुको मानना भी ठीक नहीं है। यदि वस्तु जात्यन्तररूप है तो भाव और अभावरूप विशेषोंका ज्ञान नहीं हो सकेगा और ऐसा होनेसे वस्तुका अभाव हो जायगा । किन्तु हम देखते हैं कि विशेष प्रतिपत्तिके कारणभूत सत्व और असत्त्व दोनोंका ज्ञान होता है, जैसा कि दधि, गुड़, चातुर्जातक आदि द्रव्योंके संयोगसे बनने वाले पानक (एक प्रकारका शर्बत) में दधि, गुड़ आदि विशेषोंका ज्ञान होता है। अतः तत्त्व सर्वथा जात्यन्तरूप (विलक्षण) नहीं है । तथा सर्वथा उभयरूप भी नहीं है। सर्वथा उभयरूप माननेसे जात्यन्तरूपका ज्ञान नहीं होगा। लेकिन जात्यन्तरूपका भी ज्ञान देखा जाता है, जैसे दधि, गुड़, आदिसे भिन्न पानकका ज्ञान होता है। इसलिए तत्त्व कथंचित् जात्यन्तरूप है और कथंचित् उभयात्मक है। तत्त्वको सर्वथा अवाच्य मानना भी प्रमाणविरुद्ध है। यदि तत्त्व सत्, असत् आदि किसी भी रूपसे अभिलाप्य नहीं है, तो विधि, प्रतिषेध आदि सब प्रकारके व्यवहारका निषेध होनेके कारण जगत् मूक हो जायगा। जिस प्रकार गँगा मनुष्य शब्दोंका उच्चारण नहीं कर सकता है, इसलिए उसको सारा जगत मूक प्रतीत होता है । उसी प्रकार सारा जगत् शब्दके द्वारा अवाच्य होनेसे मूक मनुष्यके समान होगा। अर्थात् तत्त्वको सर्वथा अवाच्य होनेसे ज्ञानके द्वारा उसका निश्चय नहीं हो सकेगा और जो तत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy