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________________ कारिका - १४ ] तत्त्वदीपिका १४९ वचनोंके द्वारा प्रतिपादित अनेकान्त कथंचित् शब्दके द्वारा द्योतित होता है | यदि कथंचित् शब्दके द्वारा अनेकान्तका द्योतन न किया जाय तो तत्त्वमें सर्वथैकान्तकी शंका रह सकती है । अतः तत्त्वमें सर्वथैकान्तकी आशंकाको दूर करके अनेकान्तात्मक वस्तुके ज्ञानके लिए कथंचित् शब्दका प्रयोग अवश्य करना चाहिए। ऐसी शंका भी की जा सकती है कि कथंचित् शब्दका अर्थ अनेकान्तात्मक वस्तुकी सामर्थ्य से ही ज्ञात हो जानेसे कथंचित् शब्दका प्रयोग निरर्थक है। किन्तु अनेकान्तका प्रतिपादन करने वाला व्यक्ति यदि स्याद्वादन्यायके प्रयोग करनेमें कुशल नहीं है, तो शिष्योंको कथंचित् शब्दके प्रयोगके विना अनेकान्तका ज्ञान होना कठिन है । अतः ऐसी स्थिति में कथचित् शब्दका प्रयोग करना ही चाहिए | और यदि प्रतिपादक स्याद्वादन्यायके प्रयोग करनेमें कुशल है, तो कथंचित् शब्दके प्रयोग के विना भी काम चल सकता है । 'सर्वसत्', 'सब पदार्थ सत् हैं', ऐसा कहने पर भी 'सब पदार्थ कथंचित् सत् हैं' ऐसा ज्ञान होना कठिन नहीं है । बौद्ध रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान इन पाँच स्कन्धों को छोड़कर आत्माकी पृथक् कीई सत्ता नहीं मानते हैं । जैन आत्माको ज्ञानदर्शन स्वरूप मानते हैं । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञानके भेदसे ज्ञान पाँच प्रकार का है । चक्षुः दर्शन, अचक्षुः दर्शन, अवधिदर्शन, और केवलदर्शनके भेदसे दर्शन चार प्रकारका है | ज्ञानदर्शनका नाम उपयोग है। उपयोग ही जीवका लक्षण है' । अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणाके भेदसे मतिज्ञान के चार भेद हैं । इसी प्रकार अन्य ज्ञानोंके भी अवान्तर भेद हैं । यहाँ बौद्ध कह सकते हैं कि दर्शन, अवग्रह आदिको छोड़कर आत्मा कोई पृथक् पदार्थ नहीं है । किन्तु समीचीनरूपसे विचार करने पर ज्ञान, दर्शन आदि पर्यायोंमें रहने वाला एक नित्य आमा मानना आवश्यक प्रतीत होता है । यदि ज्ञान, दर्शन आदिका आत्माके साथ तथा परस्परमें कोई सम्बन्ध नहीं है, तो जिस प्रकार एक आत्माका ज्ञान दूसरी आत्माके ज्ञानसे भिन्न है, उसी प्रकार एक ही आत्मामें होने वाले ज्ञानोंकी एक और दर्शनों की एक संतति नहीं बन सकेगी । तथा दर्शन और ज्ञानमें भी परस्पर में सम्बन्ध न होनेसे एकके विषयको दूसरा नहीं जान सकेगा । ऐसा देखा है कि जिसका दर्शन होता है, उसीका अवग्रह होता है, ईहा, अवाय १. उपयोगो लक्षणम् – तत्त्वार्थसूत्र २८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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