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आप्तमीमांसा
[परिच्छेद-१ होता है, और न नास्तित्व का ही। इसलिए नास्तित्वके साथ अवक्तव्यत्व तथा अस्तित्व और नास्तित्वके साथ अवक्तव्यत्वको मिलानेमें पथक-पथक धर्म अवश्य ही सिद्ध होते हैं। कहनेका तात्पर्य यह है कि प्रथम भंगमें सत्त्वका प्रधानरूपसे कथन होता है। द्वितीय भंगमें असत्वका प्रधानरूपसे कथन होता है। तृतीय भंगमें क्रमसे प्रधानभावापन्न सत्त्व और असत्त्वका प्रतिपादन होता है। चतुर्थ भंगमें दोनों धर्मोकी युगपत् विवक्षा होनेसे अवक्तव्यत्व धर्मका प्रतिपादन होता है। पञ्चम भंगमें सत्त्व सहित अवक्तव्यत्व का, छठवें भंगमें असत्त्व सहित अवक्तव्यत्व का, और सातवें भगमें क्रमसे सत्त्व और असत्त्व सहित अवक्तव्यत्वका प्रतिपादन होता है। __शंका-जिस प्रकार वस्तुमें एक अवक्तव्यत्व धर्म माना गया है, उसी प्रकार एक वक्तव्यत्व धर्म भी मानना चाहिए । इसलिए वक्तव्यत्व धर्मकी अपेक्षासे आठ धर्म होनेसे सात धर्मोंकी सिद्धि नहीं हो सकती है ।
उत्तर-एक पृथक् वक्तव्यत्व धर्मकी कल्पना करना ठीक नहीं है। सत्त्वादि धर्मोके द्वारा वस्तुका जो प्रतिपादन होता है, वही वक्तव्यत्व है, उसको छोड़कर अन्य कोई वक्तव्यत्व धर्म नहीं है। फिर भी यदि अवक्तव्यत्वकी तरह वक्तव्यत्वको भी एक पृथक् धर्म माननेका आग्रह हो, तो वक्तव्यत्व और अवक्तव्यत्वकी अपेक्षासे एक पृथक् सप्तभङ्गी सिद्ध हो सकती है, किन्तु सत्त्वादि धर्मोकी तरह एक पृथक् वक्तव्यत्व धर्म नहीं माना जा सकता।
अतः यह कहना ठीक ही है कि सत्त्वादि सात धर्मोको विषय करने वाली वाणीका नाम सप्तभङ्गी है। कथंचित् अथवा स्यात् शब्द अनेकान्तका वाचक अथवा द्योतक है। ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है कि कथंचित् शब्दसे ही अनेकान्तका प्रतिपादन हो जानेसे सत् आदि वचनोंका प्रयोग अनर्थक है। कथंचित् शब्दके द्वारा सामान्यरूपसे अनेकान्तका प्रतिपादन होता है। किन्तु जो व्यक्ति विशेष जाननेका इच्छुक है, उसके लिए सत् आदि विशेष वचनोंका प्रयोग करना आवश्यक है । जैसे जो वृक्षको नहीं जानता है उसको 'यह वृक्ष है' इस वाक्यके द्वारा सामान्यरूपसे वृक्षका ज्ञान हो जाता है। फिर भी उसको वृक्ष विशेषकी जिज्ञासा होने पर 'यह आमका वृक्ष है' अथवा 'नीमका वृक्ष है' इत्यादि वाक्योंका प्रयोग करना आवश्यक है । कथंचित् शब्दको अनेकान्तका द्योतक मानने में तो सत् आदि वचनोंका प्रयोग करना युक्तिसंगत ही है। सत् आदि
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