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________________ १३७ कारिका-१३] तत्त्वदीपिका केवल स्वलक्षणकी ही सत्ता है । सामान्य कोई वास्तविक पदार्थ नहीं है। विजातीयव्यावृत्त पदार्थों में केवल व्यवहारके लिए सामान्यकी कल्पना करली गयी है। जितनी गौ हैं वे सब अगौ (घोड़ा आदि) से भिन्न हैं। और सब दोहन आदि एकसी अर्थक्रिया करती हैं। इसलिए उनमें एक गोत्व नामके सामान्यकी कल्पना की गयी है। यही बात मनुष्यत्व आदि सामान्यके विषयमें है । कहा भी है यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसत् । अन्यत् संवृतिसत् प्रोक्ते ते स्वसामान्यलक्षणे ॥ -प्रमाणवा० २।३ उक्त प्रकारसे स्वलक्षण और सामान्यमें भेद करना ठीक नहीं है । यदि स्वलक्षण शब्दकी व्युत्पत्तिकी जाय तो 'स्वं असाधारणं लक्षणं यस्येति स्वलक्षणम्' यह व्युत्पत्ति होगी। इस व्युत्पत्तिके अनुसार जिस प्रकार विशेष विसदृश परिणामरूप अपने असाधारण लक्षणसे युक्त है, उसीप्रकार सामान्य भी सदशपरिणामरूप अपने असाधारण लक्षणसे युक्त है । इस दृष्टिसे अर्थात् असाधारण लक्षणसे युक्त होनेके कारण दोनोंमें कोई भेद नहीं है । जिस प्रकार विशेष व्यावृत्तिज्ञानरूप अर्थक्रिया करता है, उसी प्रकार सामान्य भी अनुवृत्तिज्ञानरूप अर्थक्रिया करता है। भारवहन, दोहन आदि अर्थक्रिया करने में जिस प्रकार केवल सामान्य समर्थ नहीं है, उसी प्रकार केवल विशेष भी समर्थ नहीं है, किन्तु सामान्यविशेषात्मक गौ ही उक्त अर्थक्रिया करती है । इसलिए अर्थक्रियाकी दृष्टिसे भी दोनोंमें कोई भेद नहीं है। इसके अतिरिक्त ऐसा भी नहीं है कि सामान्य और विशेष दोनों पृथक् पृथक हों, जैसा कि नैयायिक-वैशेषिक मानते हैं। विशेष रहित सामान्य आकाशपुष्पके समान अवस्तु ही है। कहा भी है निविशेषं हि सामान्यं भवेच्छशविषाणवत्। इसी प्रकार विना सामान्यके विशेष भी नहीं हो सकता है। जिसमें गोत्व नहीं है वह गौ यथार्थमें गौ नहीं हो सकती है । अतः पदार्थ न केवल सामान्यरूप है, न केवल विशेषरूप है, और न पृथक् पृथक् सामान्य-विशेषरूप है, किन्तु परस्परसापेक्ष होनेसे सामान्यविशेषात्मक है। कहा भी हैसामान्यविशेषात्मा तदर्थो विषयः । -परीक्षामुख ४१ सामान्य और विशेष ये दोनों पदार्थकी आत्मा (स्वरूप) हैं । सामान्य और विशेषको छोड़कर पदार्थमें ऐसा कोई तत्त्व नहीं बचता है जिसे पदार्थ कहाजाय । इस प्रकारके सामान्यविशेषात्मक पदार्थमें विना शब्दके भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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