SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३६ आप्तमीमांसा [ परिच्छेद- १ नामविशेषका स्मरण होनेसे 'यह उसका नाम है' ऐसी शब्द प्रतिपत्ति हो जाती है । पुनः दृश्यकी शब्दके साथ योजना होनेसे 'यह घट है' ऐसा व्यवसाय भी बन जाता है । अतः हमारे मतमें कोई दोष नहीं है । उक्त कथन केवल प्रलापमात्र है । स्वयं बौद्धोंके अनुसार दो विकल्प एक साथ नहीं हो सकते हैं । पूर्वदृष्ट वस्तुका स्मरण और उसके नामविशेषका स्मरण ये दोनों विकल्प हैं, फिर ये दोनों एक साथ कैसे हो सकते हैं । नाममात्रकी स्मृति भी एक साथ नहीं हो सकती है । क्योंकि एक नाममें जितने स्वर और व्यञ्जन हैं उन सबका अध्यवसाय क्रमसे ही होता है । यदि ऐसा न हो तो 'गौ' इस नाममें ग्, औ और विसर्गोंका मिश्रित ज्ञान होगा, तथा ग् आदि वर्णोंकी प्रतिपत्ति पृथक् पृथक नहीं होगी । यहाँ प्रश्न होता है कि पद और वर्णोंका व्यवसाय नामविशेषकी स्मृति होने पर होता है, या स्मृतिके विना भी। यदि पद और वर्णोंका व्यवसाय नामविशेषकी स्मृति के विना भी हो जाता है, तो विना शब्दके अर्थ व्यवसाय भी हो जाना चाहिये । फिर यह कहना कि 'शब्दविशेषकी अपेक्षा से ही अर्थका व्यवसाय होता है' ठीक नहीं है । यदि पद और वर्णों का व्यवसाय नहीं होता है तो अर्थका व्यवसाय किसी भी प्रकार संभव नहीं है । निर्विकल्पक प्रत्यक्ष तो अव्यवसायात्मक है, और उसके द्वारा देखा गया पदार्थ विना देखे के समान है, ऐसी स्थिति में प्रत्यक्ष प्रमाणकी सिद्धि नहीं हो सकती है, और प्रत्यक्ष प्रमाणके अभाव में अनुमान प्रमाण भी सिद्ध नहीं हो सकता है | अतः सम्पूर्ण प्रमाणोंका अभाव मानना पड़ेगा । और प्रमाणके अभावमें प्रमेयका अभाव स्वतः हो जायगा । इस प्रकार सम्पूर्ण जगत्को प्रमाण और प्रमेय रहित मानना होगा । यदि पद और वर्णोंका व्यवसाय नामविशेषकी स्मृति होने पर होता है, तो नामविशेषके पद और वर्णोंका व्यवसाय भी अन्य नामविशेषको स्मृति होने पर होगा । इस प्रकार अनवस्था दोषका आना अनिवार्य है । इस दोष के भय से बौद्ध यदि शब्द विना ही सामान्यका व्यवसाय मानें तो स्वलक्षणका व्यवसाय भी शब्द विना होने में कौनसी आपत्ति है । सामान्य और स्वलक्षणमें सर्वथा कोई भेद भी नहीं है । बौद्ध सामान्य और स्वलक्षणमें भेद मानते हैं । उनके अनुसार स्वलक्षणका लक्षण या कार्य अर्थक्रिया करना है । इसके विपरीत सामान्य कोई भी अर्थक्रिया नहीं करता है । स्वलक्षण परमार्थसत् है और सामान्य संवृतिसत् । स्वलक्षण वास्तविक है और सामान्य काल्पनिक । यथार्थमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy