SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 252
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कारिका - १३] तत्त्वदीपिका १३५ क्योंकि उस समय उसके नाम विशेषका स्मरण नहीं होता है । और जब तक नामविशेषका स्मरण नहीं होगा तब तक उसके शब्दका भी ज्ञान नहीं हो सकेगा । शब्दज्ञानके बिना न तो शब्द और अर्थ में सम्बन्धका ज्ञान हो सकता है, और न अर्थका अध्यवसाय हो सकता है । इस प्रकार विकल्प और शब्दकी प्रवृत्ति कहीं न हो सकनेके कारण सारा संसार शब्द और विकल्पसे शून्य हो जायगा । यहाँ बौद्ध कह सकते हैं कि विकल्पका अनुभव सबको होता है तथा श्रोत्र द्वारा शब्दका प्रतिभास भी सबको होता ही है । ऐसी स्थिति में संसार शब्द और विकल्पसे शून्य कैसे हो सकता है। इसके उत्तरमें हम कह सकते हैं कि जब निर्विकल्पक प्रत्यक्ष द्वारा विकल्प और शब्दका ग्रहण नहीं होता है, तो दोनोंकी सत्ताका निश्चय करना कठिन है । यदि निर्विकल्पक विकल्पका ग्रहण करने लगे तो स्थिर, स्थूल आदि आकारका ग्रहण भी उसके द्वारा होना चाहिए। दूसरी बात यह है कि किसी वस्तुका ज्ञान निर्विकल्पक प्रत्यक्षके द्वारा हो जानेपर भी यदि उसकी पुष्टि सविकल्पक प्रत्यक्ष के द्वारा नहीं होती है अर्थात् निर्विकल्पकके बाद सविकल्पक प्रत्यक्ष के द्वारा उसका ज्ञान नहीं होता है तो वह पदार्थ, चाहे अन्तरङ्ग हो या बहिरङ्ग, अगृहीतके समान ही होता है । बौद्धमतके अनुसार रूप आदि परमाणुओंमें क्षणिकत्वका ज्ञान निर्विकल्पक प्रत्यक्षसे ही हो जाता है । बादमें सविकल्पक प्रत्यक्षके द्वारा भी उस पदार्थका ग्रहण होता है, किन्तु क्षणिक पदार्थका ज्ञान न होकर स्थिर पदार्थका ज्ञान होता है । अतः निर्विकल्पक प्रत्यक्षके द्वारा गृहीत क्षणिकत्व भी सविकल्पक प्रत्यक्षके द्वारा गृहीत न होनेसे अगृहीतके समान ही है । यही कारण है कि पदार्थोंमें क्षणिकत्वकी सिद्धि करनेके लिए 'सर्वं क्षणिक सत्त्वात्' 'सब पदार्थ क्षणिक हैं, सत् होनेसे' इस अनुमानकी आवश्यकता पड़ती है। इस प्रकार शब्द और विकल्पके अभाव में गृहीत पदार्थ भी अगृहीतके समान ही होंगे, और ऐसा होनेसे जगत् अचेतन हो जायगा । क्योंकि जब सब पदार्थ अगृहीत हैं, कोई किसीका ग्राहक नहीं है, तो जगत्का अचेतन होना स्वाभाविक ही है । बौद्ध कहते हैं कि पूर्व में देखी हुई वस्तु तथा उसके नामविशेषका स्मरण क्रमशः नहीं होता है, किन्तु युगपत् होता है । इसलिए किसी वस्तुको देखने वाला व्यक्ति पूर्व में देखी हुई तत्सदृश वस्तुका स्मरण कर सकता है, क्योंकि उस समय उसके नामविशेषका स्मरण हो जाता है । और 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy