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________________ १३४ आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१ दूसरी वासना तथा दूसरी वासनाके द्वारा तीसरी वासना, इस क्रमसे अनेक वासनाओंकी उत्पत्ति होती रहती है । अतः सविकल्पककी उत्पत्तिका कारण भिन्न होनेसे यह कहना ठीक नहीं है कि सविकल्पक प्रत्यक्षको उत्पत्ति निर्विकल्पक प्रत्यक्षसे होती है, और निर्विकल्पककी तरह सविकल्पक भी अविचारक है।। उक्त कथन भी अविचारितरम्य है। बौद्धोंके अनुसार सविकल्पक प्रत्यक्षके द्वारा निर्विकल्पक प्रत्यक्षमें रूपादि विषयका नियम होता है । अर्थात् जब सविकल्पक प्रत्यक्षके द्वारा 'यह रूप है' 'यह रस है' इस प्रकारका अध्यवसाय (निश्चय) हो जाता है तभी यह समझना चाहिये कि यह रूप अथवा रस निर्विकल्पक प्रत्यक्षका विषय हो चुका है। जिस विषयमें अध्यवसाय नहीं होता है वह निर्विकल्पकका विषय नहीं होता है । इस प्रकार यह नियम है कि सविकल्पक प्रत्यक्षके द्वारा निर्विकल्पक प्रत्यक्षमें रूपादि विषयका नियम होता है। किन्तु यह नियम तभी बन सकता है जब सविकल्पक प्रत्यक्षकी उत्पत्ति निर्विकल्पक प्रत्यक्षसे हो । सविकल्पक प्रत्यक्षकी उत्पत्ति शब्दार्थविकल्पवासनासे मानने पर वासनाजन्य सविकल्पक प्रत्यक्षके द्वारा निर्विकल्पक प्रत्यक्षमें रूपादि विषयका नियम नहीं हो सकता है। यदि वासनाजन्य सविकल्पक प्रत्यक्षके द्वारा निर्विकल्पक प्रत्यक्षमें रूपादि विषयका नियम माना जाय, तो 'मैं राजा हूँ' इस प्रकार मनोराज्य विकल्पसे भी उक्त नियम मानना चाहिये । यदि निर्वि कल्पक प्रत्यक्ष सहित वासना द्वारा रूपादिका अध्यवसाय करनेवाले सविकल्पक प्रत्यक्षकी उत्पत्ति होनेसे सविकल्पक प्रत्यक्षके द्वारा निर्विकल्पक प्रत्यक्षमें रूपादि विषयका नियम मानना ठीक है, तो जिस प्रकार निर्विकल्पक प्रत्यक्ष रूपादिको विषय करता है, उसी प्रकार अपने उपादान कारण पूर्व ज्ञानको भी विषय करना चाहिये, क्योंकि उसकी उत्पत्ति समानरूपसे दोनोंसे होती है। सविकल्पक प्रत्यक्षमें 'यह रूप है' इस प्रकारका उल्लेख होता है, इसलिये निर्विकल्पक प्रत्यक्ष रूपादिको विषय करता है, ऐसा माननेपर निर्विकल्पक प्रत्यक्षके साथ शब्दका संसर्ग भी मानना चाहिये। क्योंकि सविकल्पक प्रत्यक्षके साथ शब्दका संसर्ग है। और निर्विकल्पक प्रत्यक्षके साथ शब्दका संसर्ग माननेपर रूपादि विषयके साथ भी शब्दका संसर्ग मानना होगा। बौद्ध न तो निर्विकल्पक प्रत्यक्षके साथ शब्दका संसर्ग मानते हैं और न अर्थके साथ । अतः बौद्धमतके अनुसार कोई व्यक्ति किसी वस्तुको देखकर उसीके समान पहिले देखी हुई वस्तुको स्मरण नहीं कर सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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