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________________ १३३ कारिका-१३] तत्त्वदीपिका हो भी नहीं सकता है, क्योंकि विषयको जानने वाला प्रत्यक्ष निर्विकल्पक माना गया है। बौद्ध कहते हैं कि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष व्यवसायात्मक (सविकल्पक) प्रत्यक्षकी उत्पत्तिमें हेतु होता है । अतः विषयमें अध्यवसायके होने में कोई विरोध नहीं है। ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि व्यवसाय कराना शब्दका काम है और निर्विकल्पक प्रत्यक्षको कल्पनापोढ होनेसे उसमें शब्दसंसर्गका अभाव है। यदि शब्दसंसर्ग रहित होने पर भी निर्विकल्पक प्रत्यक्ष सविकल्पक प्रत्यक्षकी उत्पत्तिका हेतु होता है, तो निर्विकल्पक प्रत्यक्षको स्वलक्षण (विषय) का अध्यवसाय भी करना चाहिए। बौद्ध कहते हैं कि शब्दसंसर्ग रहित निर्विकल्पक प्रत्यक्षसे सविकल्पक प्रत्यक्षकी उत्पत्ति होनेमें कोई विरोध नहीं है, क्योंकि विजातीय कारणसे भी विजातीय कार्यकी उत्पत्ति होती है । जैसे दीपकसे कज्जलकी उत्पत्ति होती है। यदि ऐसा है तो शब्दसंसर्ग रहित अर्थसे ही सविकल्पक प्रत्यक्षकी उत्पत्ति क्यों नहीं हो जाती है । यदि जाति, द्रव्य, गुण, क्रिया और नाम इन पाँच प्रकारकी कल्पनाओंसे रहित अर्थसे सविकल्पक प्रत्यक्षकी उत्पत्ति संभव नहीं है, तो शब्दसंसर्ग रहित निर्विकल्पक प्रत्यक्षसे भी सविकल्पक प्रत्यक्षकी उत्पत्ति संभव नहीं हो सकती है। सविकल्पक प्रत्यक्ष जाति आदिको विषय करता है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि निर्विकल्पक प्रत्यक्षकी तरह सविकल्पक प्रत्यक्ष भी जाति आदिको विषय नहीं कर सकता है। जब निर्विकल्पक प्रत्यक्ष शब्दसंसर्ग रहित है तो निर्विकल्पक प्रत्यक्षसे उत्पन्न होने वाला सविकल्पक प्रत्यक्ष भी शब्दसंसर्ग रहित होगा। सविकल्पक प्रत्यक्ष जाति आदिका ग्रहण कर भी नहीं सकता है। क्योंकि यह वस्तु इस जाति विशिष्ट है (गौ गोत्व जाति विशिष्ट है) इस बातको जाननेके लिए विशेषण, विशेष्य और उन दोनोंके सम्बन्धका ज्ञान आवश्यक है। किन्तु सविकल्पक प्रत्यक्षमें इतनी सामर्थ्य नहीं है कि वह विशेषण, विशेष्य और उनके सम्बन्धका ज्ञान कर सके, क्योंकि उसकी उत्पत्ति निर्विकल्पक प्रत्यक्षसे होनेके कारण वह निर्विकल्पक प्रत्यक्षकी तरह ही अविचारक है। वैभाषिक कहते हैं कि सविकल्पक प्रत्यक्षकी उत्पत्ति केवल निर्विकल्पक प्रत्यक्षसे ही नहीं होती है, किन्तु शब्दका विषय जो जाति आदि विशिष्ट अर्थ है उसमें जो विकल्प वासना (एक प्रकारका संस्कार) है उससे होती है । विकल्पवासनाकी सन्तान अनादि होनेसे एक वासनाके द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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