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आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१ लिये ज्ञानके होने पर विषयका प्रतिभास अवश्य होगा, तो इन्द्रियसे ज्ञानकी भी उत्पत्ति होती है, अतः इन्द्रियका भी प्रतिभास होना चाहिये । बौद्धोंके यहाँ ज्ञानकी उत्पत्तिमें चार कारण माने गये हैं-अधिपतिप्रत्यय, आलम्बनप्रत्यय, समनन्तरप्रत्यय और सहकारीप्रत्यय । इन्दियोंको अधिपति प्रत्यय कहते हैं । विषयका नाम आलम्बन प्रत्यय है। पूर्ववर्ती ज्ञान समनन्तर प्रत्यय है, और आलोक आदि सहकारी प्रत्यय होते हैं। जिस प्रकार ज्ञानकी उत्पत्तिमें विषय कारण होता है, उसी प्रकार इन्द्रियाँ भी कारण होती हैं। इसलिये यदि ज्ञानके होनेपर ज्ञानकी उत्पत्तिका हेतु होनेसे विषयका प्रतिभास होता है, तो इन्द्रियका प्रतिभास होना भी आवश्यक है । क्योंकि विषयको तरह इन्द्रिय भी ज्ञानकी उत्पत्तिका कारण है।
यहाँ यह कहा जा सकता है कि ज्ञानको विषयाकार होनेसे ज्ञान में विषयका ही प्रतिभास होता है, इन्द्रियका नहीं, क्योंकि ज्ञान इन्द्रियके आकार नहीं होता है। इसका उत्तर यह है कि जिस प्रकार ज्ञान विषयके आकार होता है उसी प्रकार इन्द्रियके आकार भी होना चाहिए। यदि कहा जाय कि जैसे बालककी उत्पत्तिमें माता और पिता दोनों ही कारण होते हैं, किन्तु बालक दोनोंमें से किसी एकके ही आकारको धारण करता है, उसी प्रकार इन्द्रिय और विषय दोनोंको ज्ञानकी उत्पत्तिका कारण होने पर भी ज्ञान विषयके आकार ही होता है इन्द्रियके नहीं। तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि बालकके दृष्टान्तके अनुसार ज्ञानको केवल उपादान कारणके आकार होना चाहिए, विषयके आकार नहीं। विषय ज्ञानका आलम्बन प्रत्यय होता है, और उपादान समनन्तर प्रत्यय होता है। इसलिए दोनोंमें निकट सम्बन्ध होनेसे ज्ञान दोनोंके आकार होता है, ऐसा मानने पर जिस प्रकार ज्ञान विषयको जानता है उसी प्रकार उसे पूर्ववर्ती ज्ञानको भी जानना चाहिये। अथवा जिस प्रकार वह पूर्ववर्ती ज्ञानको नहीं जानता है उसी प्रकार विषयको भी नहीं जानना चाहिये । यद्यपि ज्ञानकी उत्पत्ति विषय और पूर्ववर्ती ज्ञान दोनोंसे होती है तथा ज्ञान दोनोंके आकार भी होता है, किन्तु 'यह रूप है' 'यह रस है' इस प्रकारका अध्यवसाय (निश्चय) विषयमें होनेके कारण ज्ञान विषयको ही जानता है, ऐसा माना जाय तो यहाँ प्रश्न होगा कि जिस प्रकार विषयमें अध्यवसाय होता है उसी प्रकार पूर्ववर्ती ज्ञानमें भी अध्यवसाय होना चाहिये । दूसरी बात यह भी है कि बौद्धोंके अनुसार विषयमें अध्यवसाय
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