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________________ १३८ आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१ निश्चयात्मक ज्ञान होता है । 'मैं पुस्तकको देख रहा हूँ ऐसा वाक्य उच्चारण न करने पर भी सामने रक्खी हुई पुस्तकका चाक्षुष ज्ञान होता ही है। जब सामान्य और विशेष अभिन्न हैं, तो जिस प्रकार सामान्यका व्यवसाय होता है, उसी प्रकार विशेषका भी व्यवसाय होता है । जिस प्रकार सामान्यकी शब्दके साथ योजना होती है, उसी प्रकार विशेषकी भी शब्दके साथ योजना होती है। इस प्रकार कोई भी प्रमेय अनभिलाप्य (शब्दका अविषय) नहीं है। किन्तु श्रुतज्ञानके विषय होनेसे सब पदार्थ अभिलाप्य हैं। ___ बौद्धोंके यहाँ निर्विकल्पक प्रत्यक्ष शब्दसंसर्ग रहित है और निर्विकल्पक प्रत्यक्षसे सविकल्पक प्रत्यक्षकी उत्पत्ति होती है। किन्तु इसके साथ ही नामविशेषके स्मरण द्वारा शब्दयोजनाकी भी सविकल्पक प्रत्यक्षकी उत्पत्तिमें अपेक्षा होती है। इस प्रकार निर्विकल्पक प्रत्यक्षसे सविकल्पक प्रत्यक्षकी उत्पत्ति सीधे नहीं होती है, किन्तु बीचमें स्मार्त शब्दयोजनाका व्यवधान पड़ जाता है। शब्दाद्वैतवादी शब्दसंसृष्ट अर्थको ग्रहण करने वाला सविकल्पक प्रत्यक्ष मानते हैं, उनके यहाँ अर्थके होने पर भी ज्ञानकी उत्पत्तिमें स्मार्त (स्मृतिजन्य) शब्द योजनाको अपेक्षा होती है। इसलिए अर्थ और ज्ञानके बीच में स्मार्त शब्दयोजनाका व्यवधान होनेके कारण अर्थसे सीधे ज्ञानकी उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती है। इसी बातको धर्मकीर्तिने कहा है अर्थोपयोगेऽपि पुनः स्मार्त शब्दानुयोजनम् । अक्षधीयद्यपेक्षेत सोऽर्थो व्यवहितो भवेत् ॥ धर्मकीर्तिने उक्त प्रकारसे जो दूषण शब्दाद्वैतवादियोंको दिया है। वही दूषण स्वयं बौद्धोंके लिए भी प्राप्त होता है। क्योंकि निर्विकल्पक प्रत्यक्षसे सविकल्पक प्रत्यक्षकी उत्पत्तिमें स्मार्त शब्दयोजनाका व्यवधान पड़ जाता है। इसलिए निर्विकल्पक प्रत्यक्षसे सीधे सविकल्पक प्रत्यक्षकी उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती है । ऊपर श्लोकमें दिये गये दूषणको उसीरूपमें इस प्रकार भी दिया जा सकता है। ज्ञानोपयोगेऽपि पुनः स्मात शब्दानुयोजनम् । विकल्पो यद्ययेक्षताध्यक्षं व्यवहितं भवेत् ॥ धर्मकीर्तिने शब्दाद्वैतवादियोंको अन्य दूषण भी दिया है। स्मार्त शब्दयोजनाके पहिले अर्थ जिस प्रकार इन्द्रियज्ञानका जनक नहीं है, स्मार्त शब्दयोजनाके बाद भी वह उसी प्रकार ज्ञानका अजनक ही रहेगा । अतः यहाँ अर्थक अभावमें भी इन्द्रियज्ञान होना चाहिए । कहा भी है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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