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________________ १२९ कारिका-१३ ] तत्त्वदीपिका नहीं है। क्योंकि माध्यमिकके यहाँ जब विचारका अस्तित्व ही नहीं है तब 'विचार नहीं किया जा सकता है ऐसा कहना असंगत है। वास्तवमें माध्यमिकके मतमें किसी बातका विचार नहीं हो सकता है। क्योंकि किसी निर्णीत वस्तुके होनेपर अन्य वस्तुके विषयमें विचार किया जाता है । जब सर्वत्र ही विवाद है, तो किसी भी तत्त्वके विषयमें विचार कैसे किया जा सकता है। कहा भी है क्वचिन्निर्णीतमाश्रित्य विचारोऽन्यत्र वर्तते। सर्वत्र विप्रतिपत्तौ तु क्वचिन्नास्ति विचारणा ॥ (तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक) जब माध्यमिकके मतमें कोई विचार ही नहीं है, तो विचार द्वारा दूसरोंको समझानेके लिए शास्त्रोंका निर्माण, उपदेश देनेवाले आचार्योंका सद्भाव इत्यादि बातोंका वर्णन करना वन्ध्यासुतके सौभाग्यके समान ही होगा। यदि कहा जाय कि बुद्धने ऐसा ही उपदेश दिया है कि जितने पदार्थ हैं वे सब स्वप्नकी तरह मिथ्या हैं, तो यह आश्चर्य की ही बात होगी कि बुद्धने लोकमार्गका उल्लंघन कर ऐसा उपदेश कैसे दिया। और सबसे बड़े आश्चार्यकी बात यह है कि लोग उस मार्गका अनुसरण आज भी कर रहे हैं। इसमें अज्ञानके अतिरिक्त और क्या कारण हो सकता है। यदि सभी पदार्थ विभ्रम हैं, तो विभ्रमको तो सत्य मानना आवश्यक है। क्योंकि विभ्रमके असत्य होनेपर सब पदार्थ स्वयं सत्य हो जाँयगे । इसलिये अभावैकान्त मानना श्रेयस्कर नहीं है। जो लोग भावको भी मानते हैं और अभावको भी मानते हैं, किन्तु दोनोंको सर्वथा निरपेक्ष मानते हैं, उनका मत भी ठीक नहीं है, इस बातको बतलानेके लिए आचार्य कहते हैं विरोधानोभयकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्ति वाच्यमिति युज्यते ॥१३॥ जो स्याद्वादन्यायसे द्वेष रखनेवाले हैं उनके यहाँ भाव और अभावका निरपेक्ष अस्तित्व नहीं बन सकता है। क्योंकि दोनोंके सर्वथा एकात्म्य मानने में विरोध आता है । अवाच्यतैकान्त भी नहीं बन सकता है। क्योंकि अवाच्यतैकान्तमें भी 'यह अवाच्य है' ऐसे वाक्यका प्रयोग नहीं किया जा सकता है। कुछ लोग भावको भी मानते हैं, और अभावको भी, किन्तु दोनोंको सर्वथा निरपेक्ष मानते हैं । 'सब पदार्थ सर्वथा सत् और असत्रूप हैं ऐसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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