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________________ १३० आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१ मान्यताका नाम उभयैकात्म्य अथवा उभयैकान्त है। इस प्रकारका उभयकान्त युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि कोई भी पदार्थ न तो सर्वथा सत् है, और न सर्वथा असत् । प्रत्येक पदार्थ किसी अपेक्षासे सत् है, और किसी अपेक्षासे असत् है । स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षासे सत्त्व और परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षासे असत्त्व मानने में कोई विरोध नहीं है । किसी पदार्थको सर्वथा सत्, और सर्वथा असत् नहीं माना जा सकता। क्योंकि एककी विधिसे दूसरेका प्रतिषेध हो जाता है। कोई भी पदार्थ जिस रूपसे सत् है उसी रूपसे असत् नहीं हो सकता, और जिस रूपसे असत् है, उसी रूपसे सत् नहीं हो सकता। इस प्रकार उभयैकान्त भी प्रतीतिविरुद्ध है। अतः स्याद्वादन्यायको न माननेवालोंके मतमें भावाभावैकात्म्य नहीं बन सकता है। कुछ लोग कहते हैं कि तत्त्व सर्वथा अवाच्य है, तत्त्वका प्रतिपादन किसी भी प्रकार संभव नहीं है। यह मत भी युक्तिसंगत नहीं है। यदि तत्त्व सर्वथा अवाच्य है, और किसी भी प्रकार वाच्य नहीं है, तो 'तत्त्व अवाच्य है' ऐसा कहना भी संभव नहीं है, क्योंकि ऐसा कहनेसे तत्त्व अवाच्य न रहकर 'अवाच्य' शब्दका वाच्य हो जाता है। अर्थात् जब तत्त्व अवाच्य है तो उसके विषयमें हम किसी शब्दका प्रयोग नहीं कर सकते हैं। यदि हम उसको अवाच्य शब्दसे कहते हैं तो इसका अर्थ यह हुआ कि तत्त्व अवाच्य न रहकर वाच्य हो गया। क्योंकि उसके विषयमें हमने कुछ-न-कुछ कथन किया। उक्त दोष भी स्याद्वादन्याय को न माननेवालोंके मतमें ही आता है । स्याद्वादन्यायके अनुसार तत्त्व कथंचित् अवाच्य है और कथंचित् वाच्य है। ___ भाट्ट कहते हैं कि भावैकान्त या अभावैकान्त मानने में जो दोष आते हैं, वे दोष हमारे मतमें नहीं आ सकते, क्योंकि हमारे मतमें तत्त्व दोनों ( भावाभावात्मक ) रूप है। भाट्ट का यह कथन युक्ति विरुद्ध है । कोई पदार्थ सर्वथा सत्रूप और सर्वथा असत्रूप नहीं हो सकता है। जैसे शून्यैकान्तवादी यदि किसी प्रमाणसे शून्याद्वैतकी सिद्धि करता है तो उसको स्वमतकी हानि और परमतकी सिद्धि स्वतः हो जाती है। क्योंकि प्रमाण मान लेनेसे शून्याद्वैत्तकी असिद्धि और प्रमाण आदि तत्त्वोंकी सिद्धि होती है । उसी प्रकार भावाभावैकात्म्यवादीको भी स्वमतकी हानि और परमतका प्रसंग अनिवार्य है। क्योंकि यदि भाव और अभाव दोनों एक रूपसे हैं तो, या तो भाव ही रहेगा या अभाव ही । और ऐसा होनेसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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