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________________ १२८ आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१ अतः पदार्थोंका कोई स्वरूप सिद्ध न हो सकनेके कारण अभावैकान्त मानना ही श्रेयस्कर है। . इस प्रकार कहने वाले माध्यमिकोंके यहाँ जब कोई भी तत्त्व नहीं है तो, न तो अभावैकान्तवादियोंकी सत्ता हो सकती है, और न कोई प्रमाण ही हो सकता है। तब माध्यमिक न तो अपने पक्षकी सिद्धि कर सकते हैं, और न भावकी सत्ता मानने वालोंके मतमें दूषण दे सकते हैं। यदि माध्यमिक स्वपक्षसिद्धि करते हैं, और परपक्षमें दूषण देते हैं, तो उनको बहिरंग और अन्तरंग तत्त्वका सद्भाव अवश्य मानना पड़ेगा। हम कह सकते हैं कि बहिरंग और अन्तरंग तत्त्वकी सत्ता वास्तविक है, क्योंकि दोनों तत्त्वोंमेंसे एकके अभावमें न तो स्वपक्षकी सिद्धि हो सकती है, और न परपक्षमें दोष दिया सकता है। यदि अन्तरंग और बहिरंग तत्त्व माननेके डरसे माध्यमिक स्वपक्षसिद्धि और परपक्ष दूषण भी काल्पनिक मानें, तो ऐसा माननेसे न तो वास्तवमें नैरात्म्य (अभाव)की सिद्धि होगी, और न अनैरात्म्यमें दोष दिया जा सकेगा । कल्पनासे साध्य-साधनकी व्यवस्था मानना भी ठोक नहीं है। क्योंकि साधनके काल्पनिक होनेसे साध्यकी सिद्धि भी काल्पनिक होगी। काल्पनिक साधनसे साध्यकी पारमार्थिक सिद्धि संभव नहीं है। और जब शून्यकी सिद्धि अपारमार्थिक है, तो ऐसी स्थितिमें भावका निराकरण नहीं किया जा सकेगा, और सब तत्त्वोंकी पारमार्थिक सत्ता स्वयमेव सिद्ध हो जायगी। इस प्रकार माध्यमिक इष्ट तत्त्वकी सिद्धि करनेमें समर्थ नहीं है। वह हेय और उपादेय तत्त्वके ज्ञानसे रहित होनेके कारण केवल निरर्थक वचनोंका ही प्रयोग करता है। माध्यमिक कहता है कि हेय तत्त्व सद्वादको, और उपादेय तत्त्व शून्यवादको संवृति ( कल्पना )से माननेमें कोई दोष नहीं है। यहाँ माध्यमिकसे यह पूछा जा सकता है कि संवतिसे किसी पदार्थका अस्तित्व माननेका अर्थ क्या है। यदि इसका अर्थ यह है कि पदार्थोंका सद्भाव स्वरूपकी अपेक्षासे है, तो यह कथन स्याद्वादियोंके अनुकूल ही है। यदि संवृतिसे सद्भावका अर्थ यह माना जाय कि पदार्थों का सद्भाव पररूपकी अपेक्षासे नहीं है, तो यह अर्थ भी स्याद्वादियोंके अनुकल है। केवल नाममें ही विवाद रहा, अर्थमें नहीं। पदार्थों का अस्तित्व संवृति से है, यहाँ संवृतिका अथ यदि विचारानुपपत्ति किया जाय अर्थात् पदार्थोके विषयमें किसी प्रकारका विचार नहीं किया जा सकता है, ऐसा माना जाय तो भी ठीक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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