SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कारिका-१२] तत्त्वदीपिका १२७ अभाव ही सत्य है, और भाव स्वप्नज्ञानकी तरह मिथ्या है। स्वप्नमें नाना पदार्थोंका ज्ञान होता है, और स्वप्नज्ञानके विषयभूत पदार्थ पूर्णरूपसे सत्य प्रतीत होते हैं। किन्तु स्वप्नके बाद उन पदार्थोंका कोई अस्तित्व नहीं रहता है। यही बात जागृत अवस्थामें जाने गये पदार्थोके विषयमें है । अन्तर केवल इतना है कि स्वप्न में प्रतीत पदार्थ कुछ क्षण ही ठहरते हैं, तथा स्वप्नको देखने वाले व्यक्तिको ही प्रत्यक्ष होते हैं । और जागृत अवस्थाके विषयभूत पदार्थ अधिक काल तक ठहरते हैं, तथा अनेक व्यक्तियोंके प्रत्यक्ष होते हैं। किन्तु इतने मात्रसे उनकी पारमार्थिक सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती। अतः स्वप्नज्ञानके विषयभूत पदार्थोकी तरह जागृतज्ञानके विषयभूत पदार्थ भी मिथ्या हैं। केवल अभाव ही सत्य है । इस प्रकार ये लोग भावका निराकरण करके अभावको ही तत्त्व मानते हैं । इनके मतमें अभाव ही एक इष्ट तत्त्व है । सर्वथा अभावैकान्तको माननेवाले इन वादियोंके यहाँ स्वमत सिद्धि और परमतका खण्डन किसी भी प्रकार संभव नहीं है। स्वपक्षसिद्धि और परपक्षदूषणके लिए प्रमाणकी आवश्यकता होती है। जब अभावैकान्त पक्षमें किसी भी तत्त्वका सद्भाव नहीं है, तो प्रमाणका भी अभाव होगा, और प्रमाणके अभावमें स्वपक्षसिद्धि और परपक्षदूषण नितान्त असंभव हैं। अभावैकान्तवादमें न बोध प्रमाण है, और न वाक्य । यहाँ बोधका अर्थ है स्वार्थानुमान और वाक्यका अर्थ है परार्थानुमान । स्वार्थानुमान केवल अपने लिए होता है, उसमें वचनके प्रयोगकी आवश्यकता नहीं होती । अतः उसको 'बोध' शब्द द्वारा कहा गया है। परार्थानुमान दूसरेके लिए होता है, उसमें वचनोंका प्रयोग किया जाता है। इसलिये परार्थानुमानको 'वाक्य' शब्द द्वारा कहा गया है। माध्यमिकोंका कहना है कि भावा येन निरूप्यन्ते तद्रूपं नास्ति तत्त्वतः। यस्मादेकमनेकं च रूपं तेषां न विद्यते ॥ -प्रमाणवा० २।३६० पदार्थोंका जो स्वरूप बतलाया जाता है, वास्तवमें उनका वह स्वरूप नहीं है। जब हम इस बातपर विचार करते हैं कि पदार्थ एक है या अनेक, तो न पदार्थ एक सिद्ध होता है, और न अनेक । पदार्थ एक नहीं है, क्योंकि अनेक पदार्थ देखने में आते हैं। वे अनेक भी नहीं हो सकते, क्योंकि अनेक पदार्थोके सद्भावको सिद्ध करनेवाला कोई प्रमाण नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy