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आप्तमीमांसा
[ परिच्छेद- १
कान भर जाना चाहिए। मूर्तीक शब्दको एक श्रोताके कान में घुस जाने पर अन्य श्रोताओं को सुनाई नहीं पड़ना चाहिए । शब्दका कभी स्पर्श नहीं होता है और वह निश्छिद्र भवन के भीतरसे भी बाहर निकल जाता है । इत्यादि कारणोंसे शब्द पौद्गलिक नहीं हो सकता है ।
उत्तर - शब्दको पौद्गलिक माननेमें चक्षुके द्वारा उपलब्धि आदि जो दोष दिये गये हैं, वे युक्तिसंगत नहीं हैं। गन्धके परमाणु भी पौद्गलिक हैं, किन्तु उनकी चक्षुके द्वारा उपलब्धि कभी नहीं होती है । उनका विस्तार, विक्षेप एवं प्रतिघात भी नहीं होता है । गन्ध-परमाणुओंके द्वारा घ्राणपूरण ( नाकका भर जाना) नहीं होता है, तथा गन्ध - परमाणुओंको एक घ्राता ( सूँघनेवाला ) की नाक में घुस जानेपर अन्य घ्राताओंको उनकी अनुपलब्धि नहीं होती है । यह कहना ठीक नहीं है कि शब्दका स्पर्श नहीं होता है । जब किसी शब्दका उच्चारण जोरसे किया जाता है, या बादल, तोप आदिकी तेज गड़गड़ाहट होती है, तो श्रोताके कानमें शब्द ऐसे लगता है जैसे कोई कान में थप्पड़ मार रहा हो । तथा भवन आदिके द्वारा शब्दका उपघात भी देखा जाता है । इत्यादि कारणोंसे यह सिद्ध होता है कि शब्द में स्पर्श पाया जाता है । शब्दका सूक्ष्म परिणमन होनेके कारण निश्छिद्र भवन से उसके निकलनेमें भी कोई विरोध नहीं है । ताम्र घटमें जल या तेल भर कर और घटका मुख बन्द करके रख देने पर भी उसके अन्दरसे तेल या जल घटके ऊपर निकल आता है । यह बात घटके ऊपर स्निग्धता देखनेसे ज्ञात होती है । इसी प्रकार किसी घटके मुखको बन्द करके जलमें डाल देनेपर उसके अन्दर जलका प्रवेश हो जाता है । क्योंकि मुख खोलने पर भीतर शीत स्पर्श पाया जाता है । यही बात शब्दके विषयमें भी है। इसलिए शब्दको पौद्गलिक माननेमें कोई बाधा नहीं है ।
इस प्रकार पौद्गलिक शब्दका स्वभाव तालु आदिके व्यापारके पहले और बादमें सुनाई पड़ने योग्य नहीं है, किन्तु तालु आदि व्यापारके समय ही वह सुनाई पड़ता है । इस कारण शब्दका प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव मानना आवश्यक है । यदि शब्दका प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव नहीं है, तो शब्दको कूटस्थनित्य होनेके कारण न तो उसमें क्रमसे अर्थक्रिया हो सकती है और न युगपत् । और अर्थक्रिया के अभाव में शब्द ' निःस्वभाव ही सिद्ध होगा । अतः यह सिद्ध होता है कि शब्द अनादि और अनन्त नहीं है, किन्तु सादि और सान्त है ।
अन्योन्याभाव तथा अत्यन्ताभावको न मानने वालोंके मतमें दोषोंको
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