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कारिका-११] तत्त्वदीपिका
१२१ बतलानेके लिये आचार्य कहते हैं
सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्यापोहव्यतिक्रमे ।
अन्यत्र समवाये न व्यपदिश्येत सर्वथा ॥११॥ अन्यापोहके व्यतिक्रम करने पर अर्थात् अन्योन्याभावके न मानने पर किसीका जो एक इष्ट तत्त्व है वह सब रूप हो जायगा। तथा अत्यन्ताभावके अभावमें किसी भी इष्ट तत्त्वका किसी भी प्रकारसे व्यपदेश ( कथन ) नहीं हो सकेगा। अर्थात् यह चेतन है, और यह अचेतन है, ऐसा कथन भी नहीं हो सकता है।
एक स्वभावसे दूसरे स्वभावकी व्यावृत्तिका नाम अन्योन्याभाव है। यद्यपि अत्यन्ताभावमें भी एक स्वभावसे दूसरे स्वभावकी व्यावृत्ति रहती है, किन्तु अत्यन्ताभावमें जो व्यावृत्ति है वह त्रैकालिक है, और अन्योयाभावरूप व्यावृत्तिका सम्बन्ध केवल वर्तमान कालसे है। घट और पटका स्वभाव भिन्न भिन्न है । जीव और पुद्गलका स्वभाव भी भिन्न-भिन्न है। यहाँ घट और पटकी भिन्नता केवल घट पर्याय और पटपर्यायमें है। घट और पटके नाश होने पर घटके परमाणु पटरूप हो सकते हैं, और पटके परमाणु घटरूप हो सकते हैं। किन्तु जिन पदार्थों में अत्यन्ताभाव पाया जाता है उन पदार्थोंमें यह बात नहीं है । त्रिकालमें भी जीव पुद्गल नहीं हो सकता और पुद्गल जीव नहीं हो सकता। इसलिये घट और पटमें अन्योन्याभाव है, तथा जीव और पुद्गलमें अत्यन्ताभाव है । जो लोग अन्योन्याभाव नहीं मानते हैं उनके यहाँ एक तत्त्व सब रूप हो जायगा । घटका अन्य पदार्थोंके साथ जो अन्योन्याभाव है उसको न मानने पर घटको पट आदि अन्य पदार्थ स्वरूप भी मानना पड़ेगा। और ऐसा मानने पर घटको पटादिका कार्य भी करना चाहिए। चार्वाकके यहाँ अन्योन्याभावके अभावमें पृथिवी जल आदि रूप हो जायगी और जल पृथिवी आदि रूप हो जायगा। और ऐसा होनेसे पृथिवी आदि चार तत्त्वोंका मानना भी व्यर्थ है । केवल एक तत्त्व माननेसे ही सब काम चल जायगा । सांख्यके यहाँ भी अन्योन्याभावके अभावमें बुद्धि, अहंकार आदि तत्त्व दूसरे तत्त्व (भूतादि) रूप हो जायगे। फिर उनको पृथक् पृथक् माननेसे कोई लाभ नहीं है । उन्हें भी एक ही तत्त्व मान लेना चाहिए।
ज्ञानमात्र को मानने वाले योगाचारके यहाँ भी ज्ञानके दो आकारों ( ग्राह्याकार और ग्राहकाकार ) की परस्परमें व्यावृत्ति ( अन्योन्याभाव )
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