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________________ कारिका - १० ] तत्त्वदीपिका ११९ , मीमांसक प्रत्यभिज्ञानके द्वारा वर्णोंमें व्यापकत्व और नित्यत्व सिद्ध करते हैं । यह वही 'क' है जो पहले था । परन्तु हम देखते हैं कि अनित्य पदार्थों में भी इस प्रकारका प्रत्यभिज्ञान होता है । दीपशिखाके स्थिर एवं एक न होनेपर भी 'यह वही दीपशिखा है' ऐसा प्रत्यभिज्ञान होता है । बुद्धि और क्रियाको अनेक एवं अनित्य होनेपर भी यह वही बुद्धि है, वही क्रिया है, ऐसा प्रत्यभिज्ञान होता है। यदि अनेक बुद्धि और क्रियाको भी एक माना जाय तो फिर संसार में कोई भी पदार्थं अनेक नहीं हो सकेगा । तब सब वस्तुओंको भिन्न-भिन्न न मान कर एक ही मानना चाहिए । हम कह सकते हैं कि 'क' 'ख' आदि वर्ण अनेक नहीं हैं, किन्तु एक हैं, और अभिव्यञ्जकके भेदसे एक ही वर्णकी 'क' 'ख' आदि नाना वर्णरूपसे प्रतीति होती है । जैसे कि एक ही चन्द्रमाकी अनेक जलपात्रोंमें प्रतिबिम्बके कारण नानारूपसे प्रतीति होती है । यदि वर्णको एक माननेमें प्रत्यक्षसे विरोध आता है, तो अनेक बुद्धि और क्रियाको भी एक मानने में विरोधका निवारण कैसे होगा । इसलिये प्रत्यभिज्ञानसे शब्द में व्यापकत्व और नित्यत्व सिद्ध नहीं हो सकता है । तालु आदिके व्यापार करनेपर शब्दमें श्रावण स्वभाव आता है । तथा तालु आदिके व्यापारके पहले और बादमें शब्दमें श्रावण स्वभाव नहीं रहता है । इस स्वभावभेदसे यह स्पष्ट है कि शब्द नित्य नहीं है । स्वभावभेदके होनेपर भी यदि शब्दको नित्य माना जाय तो कोई भी वस्तु अनित्य नहीं होगी । इसी प्रकार 'क' आदि वर्ण एक नहीं है, क्योंकि वह एक साथ नाना देशों में भिन्न-भिन्न रूपसे उपलब्ध होता है । एक साथ नाना देशों में ह्रस्व, दीर्घ आदि भिन्न रूपसे सुनाई पड़ता है । फिर भी वर्णको एक माना जाय तो कोई भी वस्तु अनेक नहीं हो सकेगी । अतः शब्द एक और नित्य न होकर अनेक और अनित्य है । शब्द पुद्गल द्रव्यकी पर्याय है । तालु आदि कारणों के मिलने पर पुद्गल द्रव्य ही शब्दरूपसे परिणमन करता है, जैसे कि मिट्टी घटरूपसे परिणमन करती है । घटादिकी तरह शब्द भी प्रयत्नजन्य है, अपौरुषेय नहीं । शंका- शब्दको पौद्गलिक माननेमें अनेक दोष आते हैं । शब्द यदि पौद्गलिक है तो घट आदिकी तरह चक्षुके द्वारा उसकी उपलब्धि होना चाहिए । पौद्गलिक द्रव्यमें विस्तार और विक्षेप देखा जाता है । अतः शब्द में भी विस्तार और विक्षेप होना चाहिए । मूर्तीक द्रव्यसे शब्दका प्रतिघात भी होना चाहिए | मूर्तीक शब्द परमाणुओंके द्वारा श्रोताका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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