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________________ ११२ आप्तमीमांसा [ परिच्छेद- १ । कार्यद्रव्यमनादि स्यात् प्रागभावस्य नि प्रध्वंसस्य च धर्मस्य प्रच्यवे ऽनन्ततां व्रजेत् ॥ १०॥ प्रागभाव के निराकरण करनेपर घट आदि कार्यद्रव्य अनादि हो जायगा और प्रध्वंसाभावके निराकरण करनेपर कार्यद्रव्य अनन्ताको प्राप्त होगा । जो द्रव्य कारणोंसे उत्पन्न होते हैं वे कार्यद्रव्य कहलाते हैं । घट मिट्टी आदि कारणोंसे उत्पन्न होता है, और पट तन्तु आदि कारणोंसे उत्पन्न होता है, इसलिये घट, पट आदि कार्यद्रव्य हैं । घट अनादि नहीं है, किन्तु सादि है । घटकी उत्पत्तिके पहले, घटका प्रागभाव रहता है, और घटके उत्पन्न होते ही वह समाप्त हो जाता है । एक घट आज उत्पन्न हुआ । उसके विषयमें हम कह सकते हैं कि वह घट आजसे पहिले नहीं था, क्योंकि आजके पहिले घटका प्रागभाव था। जब प्रागभावकी सत्ता ही नहीं है, तो ऐसा नहीं कहा जा सकता कि यह घट आजसे पहिले नहीं था । जिस घटको हम आज देख रहें हैं उस घटका सद्भाव अनादि कालसे मानना चाहिए। क्योंकि घटका प्रागभाव कभी रहा ही नहीं । इस प्रकार प्रागभावके न माननेपर कार्यद्रव्यको अनादि अवश्य मानना पड़ेगा । प्रध्वंसाभाव के अभाव में कार्यद्रव्यमें अनन्तताका दोष भी तर्क संगत है । घटके फूट जानेपर घटका अन्त हो जाता है । घटके फूटने का नाम ही घटका प्रध्वंसाभाव है । जब प्रध्वंसाभाव ही नहीं है तो घटका अन्त कैसे होगा, और अन्त के अभाव में घट अनन्त होगा ही । घटके फूटनेपर घटका सदा के लिए प्रध्वंसाभाव हो जाता है, और वह घट कभी उपलब्ध नहीं होता है । किन्तु प्रध्वंसाभाव के अभाव में जो घट आज उत्पन्न हुआ है, वह कभी फूटेगा ही नहीं और सदा उपलब्ध होता रहेगा । इस प्रकार प्रध्वंसाभावके न माननेपर कार्यद्रव्योंको अनन्त ( अविनाशी ) होनेसे कोई नहीं रोक सकेगा । चार्वाक मतके अनुसार प्रागभावादिका व्यवहार केवल काल्पनिक है । लोग केवल रूढिके कारण पृथिवी आदि भूतोंमें प्रागभाव आदिका व्यवहार करते हैं । यथार्थ में अभावकी कोई सत्ता नहीं है । यदि चार्वाक प्रागभाव और प्रध्वंसाभावको नहीं मानता है, तो कार्यद्रव्यको अनादि और अनन्त होनेसे कैसे रोक सकेगा । ऐसा नहीं है कि चार्वाक कार्यद्रव्यको न मानता हो । चार्वाक पृथिवी आदि भूतोंसे कार्यों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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