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कारिका-९] तत्त्वदीपिका आदि पदार्थ ब्रह्मसे भिन्न नहीं हैं, तो उनमें अभेदकी सिद्धि करनेवाला कोई साधन होना चाहिये। घट,पट आदि पदार्थ ब्रह्मसे अभिन्न हैं, क्योंकि ये ब्रह्मस्वरूप हैं, या ब्रह्मके कार्य हैं अथवा ब्रह्मके स्वभाव हैं, इत्यादि साधनोंको साध्य ( ब्रह्म )से अभिन्न मानना पड़ेगा, क्योंकि उनको ब्रह्मसे भिन्न मानने में द्वैत सिद्धि होगी। और जब साध्य और साधन अभिन्न हैं, तब यह साध्य है, और यह साधन है, ऐसा विकल्प संभव न होनेसे, एकत्वकी सिद्धि संभव नहीं है । 'सब पदार्थ ब्रह्मके अन्तर्गत हैं, क्योंकि वे प्रसिभासमान हैं, जैसे ब्रह्मका स्वरूप'। इस अनुमानसे भी ब्रह्म की सिद्धि नहीं हो सकती। क्योंकि पक्ष , हेतु, दृष्टान्त आदिका भेद यदि सत्य है, तो द्वैत सिद्धि अनिवार्य है, और यदि पक्ष, हेतु आदिको ब्रह्मसे पृथक सत्ता नहीं है तो ये ब्रह्मके साधक कैसे हो सकते हैं। यही बात आगम प्रमाणके विषयमें भी हैवेदान्ती कहते हैं
ऊर्णनाभ इवांशूनां चन्द्रकान्त इवांभसाम् ।
प्ररोहाणामिव प्लक्षः स हेतुः सर्वजन्मिनाम् ॥ जैसे मकड़ी अपने जालके तन्तुओंका कारण है, चन्द्रकान्तमणि पानीका कारण है, और वटवृक्ष प्ररोहों ( जटाओं )का कारण है, उसी प्रकार ब्रह्म सब प्राणियोंकी उत्पत्ति का कारण है।
इस प्रकारके आगमसे ब्रह्मकी सिद्धि करने पर भी वही प्रश्न होगा कि यह आगम ब्रह्मसे भिन्न है या अभिन्न । भिन्न पक्षमें द्वैतका प्रसंग आता है, और अभिन्न पक्षमें उनमें साध्य-साधकभाव ही नहीं हो सकता है। इस प्रकार ब्रह्मका साधक न प्रत्यक्ष है, न अनुमान है, और न आगम है । और प्रमाणके अभावमें किसी वस्तुकी स्वतः सिद्धिकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। यदि स्वयं ही किसी वस्तुकी सिद्धि मानली जाय तो प्रत्येक मतकी सिद्धि स्वत: जो जायगी। तब ब्रह्माद्वैतकी तरह संवेदनाद्वैतकी भी स्वतः सिद्धि मानना पड़ेगी। ऐसी स्थितिमें अनेकान्तकी भी स्वतः सिद्धि होने में कोई बाधा नहीं हैं। अतः ब्रह्माद्वैतकी सिद्धि किसी प्रमाणसे नहीं होती है । इस प्रकार भावैकान्त पक्षका सयुक्तिक निराकरण किया गया है।
जो लोग प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव नहीं मानते हैं, उनके मतमें कौन-कौनसे दोष आते हैं, इस बातको बतलानेके लिए आचार्य कहते हैं
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