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आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१ ग्रहण हो तो क्रमशः अनन्त स्वरूप अभावोंके ग्रहण करने में ही शक्ति क्षीण हो जानेसे पदार्थको देखनेका कभी अवसर ही प्राप्त न होगा। अर्थात् यदि प्रत्यक्ष अभावका ग्रहण करता है तो अभावका ही ग्रहण करता रहेगा और भावको ग्रहण करनेका कभी अवसर ही न मिलेगा। इसलिये प्रत्यक्ष अभावको न जानकर केवल सन्मात्र ब्रह्मको ही विषय करता है। ___अनुमानके द्वारा भी अभावका ज्ञान नहीं हो सकता है । अभावका कोई स्वभाव या कार्य नहीं है। अतः स्वभाव हेतु और कार्य हेतुके द्वारा अभावका अनुमान नहीं किया जा सकता । अनुपलब्धि हेतुसे तो उसका अभाव ही सिद्ध होगा। इस प्रकार जब किसी प्रमाणसे अभावकी सिद्धि नहीं होती है, तब इतरेतराभावकी सिद्धि कैसी होगी। अतः इतरेतराभावके द्वारा भी पदार्थों में भेद सिद्धि नहीं होती है।
कुछ लोग बुद्धि आदि नाना कार्योंको देखकर नाना वस्तुओंके सद्भावको सिद्ध करते हैं। यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि वस्तुओंमें भेद न होने पर भी बुद्धि आदि नाना कार्य देखे जाते हैं। जैसे एक नर्तकी है, और अनेक पुरुष एक ही समयमें उसके नाच को देख रहे हैं । वहाँ नर्तकीके एक होनेपर भी एक ही समयमें नाना पुरुषोंमें नाना प्रकारकी बुद्धि, आदि अनेक कार्य देखे जाते हैं । यदि ऐसा माना जाय कि नर्तकीमें नाना शक्तियाँ रहनेके कारण बुद्धि आदि नाना कार्य होते हैं, तो ऐसा मानना भी ठीक नहीं है। क्योंकि नाना शक्तियोंकी सिद्धि करनेवाला कोई प्रमाण नहीं है । अतः बुद्धि आदि नाना कार्योंसे नाना वस्तुओंकी सिद्धि नहीं हो सकती है। पदार्थों में न देशभेद है, न कालभेद है, और न स्वभाव भेद है, फिर भी अविद्याके द्वारा देश, काल और स्वभाव भेदका मिथ्या व्यवहार होता है, जिसके निमित्तसे बौद्ध क्षणिक और भिन्न-भिन्न सन्तान वाले स्कन्ध मानते हैं, तथा नैयायिक आदि अक्षणिक और एक सन्तान वाले स्कन्ध मानते हैं। वेदान्तमें अविद्याकी सत्ता भी पारमार्थिक नहीं है, काल्पनिक है। अतः अविद्याके माननेसे द्वैत सिद्धिका दोष नहीं आता है। इस प्रकार वेदान्तमतमें ब्रह्मकी ही एकमात्र सत्ता मानी गयी है।
वेदान्तवादियोंका यह कथन कि सन्मात्र परम ब्रह्म ही एक अद्वितीय तत्त्व है, युक्ति संगत प्रतीत नहीं होता है। सब लोग प्रत्यक्षसे घट, पट आदि भिन्न-भिन्न पदार्थोंकी सत्ताको उपलब्ध करते हैं। यदि घट, पद
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