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________________ आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१ बौद्धोंका उक्त कथन ठीक नहीं है। सुखादिकी उत्पत्ति सर्वथा उन्हीं कारणोंसे नहीं होती जिनसे ज्ञानकी उत्पत्ति होती है। सुखकी उत्पत्ति सातावेदनीयके उदयसे होती है और ज्ञानकी उत्पत्ति ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे होती है। इसलिये दोनोंकी उत्पत्तिके कारणोंमें भिन्नता है। फिर भी दोनोंकी उत्पत्तिके कारणोंमें कथंचित् अभिन्नता होनेसे दोनोंमें एकता मानी जाय तो रूप, आलोक आदिको भी ज्ञानरूप मानना चाहिये । इसी प्रसंगमें किसी दार्शनिकने कहा भी है तदतपिणो भावास्तदतद्रूपहेतुजाः। __तद्रूपादि किमज्ञानं विज्ञानाभिन्नहेतुजम् ॥ ज्ञानको उत्पत्ति रूप, आलोक आदिको सहायतासे होती है। रूप ज्ञानकी उत्पत्तिका कारण है, और रूपकी उत्पत्तिका भी कारण है। इसलिये रूपको भी ज्ञानरूप मानना चाहिये। क्योंकि दोनोंकी उत्पत्तिके कारणमें कथंचित् ( रूपकी अपेक्षासे ) अभेद है। इसप्रकार ज्ञान और सुखादि सर्वथा एक नहीं हैं। चेतनत्वकी अपेक्षासे वे एक हैं, किन्तु अपने कार्य, स्वरूप आदिकी अपेक्षासे उनमें अनेकता भी है। _नैयायिक-वैशेषिक कहते हैं कि ज्ञानसे भिन्न होनेके कारण सुख आदि अचेतन हैं। उक्त कथन युक्तिसंगत नहीं है । सुख आदि चेतन आत्मासे अभिन्न होनेके कारण चेतन ही हैं, अचेतन नहीं । और आत्मामें चेतनता स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे सिद्ध होती है। आत्मा प्रमाता होनेसे भी चेतन है । घटादि अचेतन पदार्थ दूसरे पदार्थोंका ज्ञाता नहीं हो सकता। यह कहना ठीक नही है कि आत्मा स्वयं अचेतन होनेपर भी चेतनाके समवायसे चेतन प्रतीत होती है, क्योंकि जो वस्तु स्वयं अचेतन है उसमें चेतनाका समवाय भी नहीं हो सकता है। जैसे अचेतन आकाशमें चेतनाका समवाय नहीं हो सकता है । इसलिये आत्माको चेतन मानना आवश्यक है, और चेतन आत्मासे अभिन्न होनेके कारण सुखादि भी चेतन हैं। जिसप्रकार अन्तरङ्ग तत्त्व (आत्मा) एकानेकात्मक है, उसीप्रकार बहिरंग तत्त्व ( पुद्गलादि ) भी एकरूप और अनेकरूप है। पुद्गलस्कन्धकी अपेक्षासे घट एक है । किन्तु उसी घटमें वर्ण, आकार आदि अनेक विशेषतायें पायी जाती हैं । अतः वही घट अनेकरूप भी है । पुद्गल परमाणुओंकी अपेक्षासे भी घट अनेकरूप है । बौद्धका मत है कि अवयवीरूप ( स्कन्धरूप ) कोई वस्तु नहीं है, केवल परमाणुओंका ही प्रत्यक्ष होता है । यद्यपि एक परमाणुका दूसरे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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