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________________ कारिका-७] तत्त्वदीपिका रूप नहीं, क्योंकि ऐसा कहनेपर चित्रज्ञानको भी एकरूप ही मानना पड़ेगा, और एकरूप माननेपर उसको चित्रज्ञान नहीं कह सकते । चित्रज्ञान उसीको कहते हैं जिसमें अनेक आकार पाये जावें। कुछ लोग चित्रज्ञानमें अनेक आकारोंका खण्डन करनेके लिए कहते हैं कि स्यात्सा चित्रतैकस्यां न स्यात्तस्यां मतावपि । यदीदं स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम् ॥ प्रमाणवा. २।२१० क्या एक ज्ञानमें चित्रता ( नाना आकार ) हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती। फिर भी यदि ज्ञानको चित्रता अच्छी लगती है तो इस विषयमें कोई क्या कर सकता है। कहनेका अभिप्राय यह है कि ज्ञानमें चित्रता है नहीं, किन्तु अज्ञानवश कोई उसमें चित्रता माने तो इसमें कोई क्या कर सकता है। इसके उत्तरमें यह भी कहा जा सकता है किन्नु स्यादेकता न स्यात्तस्यां चित्रमतावपि । यदीदं रोचते बुद्धय चित्रायै तत्र के वयम् ॥ क्या चित्रज्ञानमें एकता हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती। फिर भी यदि चित्रज्ञानको एकता अच्छी लगती है तो इसमें हम क्या कर सकते हैं। इस प्रकार चित्रज्ञानमें अनेकाकारताकी तरह एकाकारताका भी खण्डन किया जा सकता है। यथार्थमें चित्रज्ञानमें न तो एकाकारता मिथ्या है और न अनेकाकारता। चित्रज्ञानमें दोनों आकार सत्य हैं। उसीप्रकार आत्मा आदि तत्त्व भी एकरूप और अनेकरूप हैं। ज्ञान, सुख आदि चैतन्य आत्मारूप ही हैं, आत्मासे पृथक् इनकी सत्ता नहीं है । ज्ञान आदि अचेतन भी नहीं हैं । ज्ञान, सुख, आदि आत्माकी अपेक्षासे एक हैं और अपनी-अपनी अपेक्षासे अनेक भी हैं। बौद्ध कहते हैं कि सुख आदि ज्ञानरूप ही हैं, क्योंकि जिन कारणोंसे ज्ञानकी उत्पत्ति होती है, उन्हीं कारणोंसे सुख आदिकी भी उत्पत्ति होती है । इस विषयमें धर्मकीर्तिने कहा है-- तदतद्रूपिणो भावास्तदतद्रूपहेतुजाः। तत्सुखादि किमज्ञानं विज्ञानाभिन्नहेतुजम् ।। प्रमाणवा० १।२१५ जो पदार्थ जैसा होता है उसकी उत्पत्ति उसीप्रकारके कारणोंसे होती है। इस कारणसे सुख आदि अज्ञानरूप नहीं हो सकते, क्योंकि सुखादिकी उत्पत्ति ज्ञानोत्पादक कारणोंसे ही होती है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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