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________________ आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१ भी तत्त्वकी सत्ता नहीं है। अर्थात् केवल शून्य ही तत्त्व है। अनेकान्त शासनको ठीकसे न समझ सकनेके कारण ही ये सब एकान्तवादको मान रहे हैं। यद्यपि एकान्तवादी यथार्थमें आप्त नहीं हैं. फिर भी ये लोगोंको दिखाना चाहते हैं कि हम आप्त हैं। इसीलिये ये आप्तके अभिमानवश होकर अपने आप भीतर ही भीतर अभिमानरूपी अग्निसे जल रहे हैं। इन्होंने एकान्तको ही अपना इष्ट तत्त्व मान लिया है। किन्तु जब एकान्तकी परीक्षाकी जाती है तो उसमें प्रत्यक्षसे बाधा आती है। प्रत्यक्ष प्रमाणके द्वारा यह भलीभाँति प्रतीत होता है कि कोई भी तत्त्व एक धर्मात्मक नहीं है, किन्तु अनेक धर्मात्मक है । ___ इस बातको सम्पूर्ण संसार अच्छी तरहसे जानता है कि बहिरङ्ग और अन्तरङ्गमें अनेकान्तात्मक वस्तुका साक्षात्कार होता है। इसीकारण वस्तुको एकधर्मात्मक माननेमें प्रत्यक्षसे बाधा आती है। चेतन आत्मा अन्तरङ्ग तत्त्व है और घट, पटादि बहिरंग तत्त्व हैं । अन्तरङ्ग या बहिरङ्ग ऐसा कोई भी तत्त्व नहीं है जो केवल सत्रूप ही हो या असत्रूप ही हो, जो नित्यरूप ही हो या अनित्यरूप ही हो। किन्तु प्रत्येक तत्त्व सत् और असत्, नित्य और अनित्य, इस प्रकार उभयरूप है । सत् असत्का निराकरण नहीं करता, किन्तु असत्की अपेक्षा रखता है। नित्य अनित्यका और अनित्य नित्यका निराकरण नहीं करता किन्तु एक दूसरेकी अपेक्षा रखता है । प्रत्येक तत्त्व एकरूप भी है और अनेकरूप भी है। द्रव्यकी अपेक्षासे आत्मा एक है, और ज्ञान, दर्शन सुख आदिकी अपेक्षासे अनेक है । मिट्टीद्रव्यकी अपेक्षासे घट एक है, और वर्ण, आकार आदिकी अपेक्षासे अनेक है । चित्रज्ञानकी तरह। चित्राद्वैतवादी एक मत है जो ज्ञानको चित्राकार मानता है । चित्राकारका अर्थ है कि ज्ञानमें नील, पीत आदि अनेक आकार पाये जाते हैं जैसे कि चितकबरी गौ आदिमें अनेक रंग पाये जाते हैं। अनेक आकार होनेपर भी ज्ञानकी एकतामें कोई विरोध नहीं आता। आकारोंकी अपेक्षासे ज्ञान अनेकरूप है, और ज्ञानकी अपेक्षासे एकरूप । यही बात आत्मा आदि तत्त्वोंके विषयमें है। ज्ञान, दर्शन, सुख आदिकी अपेक्षासे आत्मा अनेकरूप है और आत्मद्रव्यको अपेक्षासे एकरूप । चित्रज्ञानाद्वैतवादी यह नहीं कह सकता कि सुखरूप आत्मासे ज्ञानरूप आत्मा भिन्न है और इस कारण वह एक नहीं है। क्योंकि ऐसी स्थितिमें नीलरूप आकारसे पीतरूप आकारको भिन्न होनेके कारण चित्रज्ञान भी अनेकरूप सिद्ध नहीं होगा। ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि आत्मा एक रूप ही है, अनेक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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