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________________ कारिका-७] तत्त्वदीपिका कर्ष है । सन्निकर्षके होनेपर भी ज्ञानके अभावमें सन्निकर्षमें प्रमाणता नहीं आ सकती । इसप्रकार बौद्ध नैयायिक-वैशेषिक द्वारा माने गये सन्निकर्षमें प्रमाणताका खण्डन करते हैं। किन्तु यही बात निर्विकल्पकको प्रमाण मानने भी है । निर्विकल्पकमें भी सविकल्पककी अपेक्षा रहती है। इसलिये चैतन्य होनेपर भी निर्विकल्पक प्रमाण नहीं है। जैसे कि सोये हये व्यक्तिका चैतन्य । सोये हुये व्यक्तिका चैतन्य प्रमाण नहीं है, क्योंकि वह अनिश्चयात्मक होनेके कारण समारोपका विरोधी नहीं है। निर्विकल्पक प्रत्यक्ष भी अनिश्चयात्मक एवं समारोपका अविरोधी होनेसे प्रमाण नहीं है। इसलिये अन्य मतोंमें अनित्यत्वैकान्त आदि एकान्तोंकी जो कल्पना है वह कल्पनामात्र ही है। उसकी सिद्धि किसी प्रमाणसे नहीं होती है। यही कारण है कि अर्हन्तके अनेकान्त शासनमें एकान्त द्वारा बाधा नहीं दी जा सकती। अतः 'यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते' यह कथन सर्वथा युक्ति संगत है। इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि अर्हन्तके द्वारा प्रतिपादित मोक्ष आदि तत्त्वोंको अबाधित होनेसे वही सर्वज्ञ एवं वीतराग हैं, कपिलादि नहीं। क्योंकि एकान्तवादियोंका इष्ट तत्त्व प्रमाणसे बाधित है। इसी बातको आचार्य कहते हैं - त्वन्मतामृतबाह्यानां सर्वथैकान्तबादिनाम् । आप्ताभिमानदग्धानां स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते ॥७॥ जिन्होंने आपके मतरूपी अमृतका स्वाद नहीं लिया है, जो सर्वथा एकान्तवादी हैं और जो 'हम आप्त हैं' इसप्रकारके अभिमानसे जले जा रहे हैं, उनका जो इष्ट तत्त्व है उसमें प्रत्यक्ष प्रमाणसे बाधा आती है। अर्हन्तने अनेकान्तात्मक वस्तुका प्रतिपादन किया है। उस अनेकान्तात्मक वस्तुका ज्ञान प्राप्त करना ही अर्हन्तका मत है । अर्हन्तके मतको यहाँ अमृत कहा है। क्योंकि जिस प्रकार अमृतके पानसे व्यक्ति अमर हो जाता है, उसी प्रकार अर्हन्तके मतका ज्ञान हो जानेसे मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है, और मोक्षकी प्राप्ति हो जानेसे यह जीव सदाके लिये अजर, अमर हो जाता है। जिन लोगोंने अर्हन्तके मतको नहीं जाना है वे एकान्तवादी हैं। कोई क्षणिकैकान्तवादी है तो कोई नित्यत्वैकान्तवादी, कोई कहता है कि केवल शब्दमात्र ही तत्त्व है, तो कोई ब्रह्ममात्रकी ही सत्ता मानता है। कोई ज्ञानमात्रको ही तत्त्व मानता है, तो कोई कहता है कि संसारमें किसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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