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आप्तमीमांसा [परिच्छद-१ नहीं है कि वह संसारके समस्त साध्य और साधनोंका ज्ञान कर सके। अत; प्रत्यक्षके द्वारा अविनाभावका ज्ञान संभव नहीं है । ___ अनुमानके द्वारा भी अविनाभावका ज्ञान सम्भव नहीं है । 'पर्वतोऽयं वह्निमान् धूमवत्वात्' इस अनुमानमें जो अविनाभाव है उसका ज्ञान इसी अनुमानसे होगा या दूसरे अनुमानसे । यदि दूसरे अनुमानसे इस अनुमानके अविनाभावका ज्ञान होगा तो दूसरे अनुमानमें अविनाभावका ज्ञान तीसरे से और तीसरेमें अविनाभावका ज्ञान चौथे अनुमानसे होगा। इस प्रकार अनवस्था दुषण आता है। यदि इसी अनुमानसे इस अनुमानके अविनाभावका ज्ञान किया जाता है तो ऐसा माननेमें अन्योन्याश्रय दोष आता है। क्योंकि अविनाभावका ज्ञान हो जानेपर अनुमान होगा और अनुमानके उत्पन्न होनेपर अविनाभावका ज्ञान होगा। इसप्रकार बौद्धोंके यहाँ किसी भी प्रमाणसे अविनाभावका ज्ञान न हो सकनेके कारण अनुमान प्रमाण सिद्ध नहीं होता है । इसलिये अनुमान प्रमाणसे भी अनित्यत्वैकान्तकी सिद्धि नहीं होती है।
जैनमतमें अविनाभावको ग्रहण करनेवाला तर्क नामका एक पृथक प्रमाण है। तर्कमें ही अविनाभावको जाननेकी शक्ति है। विषयके भेदसे प्रमाणोंमें भेद होता है। अविनाभाव एक ऐसा विषय है जिसका ग्रहण तर्कके सिवाय अन्य किसी प्रमाणसे नहीं हो सकता है। अतः तर्कका मानना आवश्यक है। तर्कके द्वारा अविनाभावका ज्ञान हो जानेपर किसी प्रकारका संशय नहीं रहता है। यदि बौद्ध आदि तर्कको प्रमाण नहीं मानते हैं तो अनुमानको भी प्रमाण न मानें । क्योंकि जो बात तर्ककी प्रमाणताके विषयमें है, वही अनुमान आदि प्रमाणोंके विषयमें भी है। तर्क अपने विषय ( अविनाभाव ) में समारोप ( संशय, विपर्यय, और अनध्यवसाय ) का निराकरण करता है। अन्य प्रमाण भी यही काम करते हैं। तर्कके द्वारा जो अविनाभाव सम्बन्धका ज्ञान होता है वह निश्चयात्मक होता है। यदि उसके द्वारा अविनाभावका निश्चयात्मक ज्ञान न हो तो वह प्रमाण नहीं हो सकता है। निर्विकल्पक प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है, क्योंकि उसमें सविकल्पक ( निश्चयात्मक ) प्रत्यक्षकी अपेक्षा रहती है। निर्विकल्पक प्रत्यक्षके हो जाने पर भी जब तक सविकल्पक प्रत्यक्ष नहीं हो जाता तब तक निर्विकल्पकमें प्रमाणता नहीं आ सकती।
बौद्ध संनिकर्षको प्रमाण नहीं मानते हैं, क्योंकि सन्निकर्षके रहनेपर भी ज्ञानकी अपेक्षा रहती है । इन्द्रिय और पदार्थके सम्बन्धका नाम सन्नि
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