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________________ ९५ कारिका-७] तत्त्वदीपिका परमाणुके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, फिर भी परमाणुओंमें परस्परमें अत्यन्त निकटता होनेके कारण भ्रान्तिवश अवयवीकी प्रतीति हो जाती है। बौद्धोंका उक्त कथन अयुक्त है। प्रत्यक्षके द्वारा अवयवीरूप पदार्थकी ही प्रतीति होती है। और अत्यन्त सूक्ष्म होनेके कारण परमाणुओंका ज्ञान कभी भी प्रत्यक्षसे नहीं होता है। प्रत्यक्षमें इतनी सामर्थ्य नहीं है कि वह परमाणुओंका ज्ञान कर सके । इसलिये यह कहना कि प्रत्यक्षसे परमाणुओंका ज्ञान होता है, स्कन्धका नहीं, प्रतीति विरुद्ध है। ___कुछ लोग कहते हैं कि प्रत्यक्षसे स्कन्धकी ही प्रतीति होती है, और स्कन्धके अतिरिक्त वर्ण आदिका कोई अस्तित्व नहीं है। स्कन्धकी ही चक्षु आदि इन्द्रियके भेदसे वर्ण आदिरूपसे प्रतीति होती है, जैसे कि आँखमें अङ्गली लगाने से दीपककी एक ही लौ दो रूपसे दिखने लगती है । उक्त कथन भी समीचीन नहीं है। यदि भेदकी प्रतीति होनेपर भी अभेद माना जाय तो यह भी कहा जा सकता है कि सत्ता ही एक तत्त्व है और द्रव्य, गुण आदि सब काल्पनिक हैं । जैसे केवल वर्णादिकी प्रतीति मानना असंगत है, उसीप्रकार केवल स्कन्धकी प्रतीति मानना भी असंगत है । अतः वर्णादि तथा स्कन्ध दोनोंकी प्रतीति होनेके कारण अन्तरङ्ग तत्त्वकी तरह बहिरङ्ग तत्त्व भी अनेकान्तात्मक है। __ प्रत्यक्षसे सामान्य-विशेषरूप ( अनेकान्तात्मक ) तत्त्वकी ही प्रतीति होती है, और एकान्तरूप तत्त्वकी प्रतीति प्रत्यक्षसे कदापि नहीं होती। यतः प्रत्यक्षसिद्ध अनेकान्तात्मक वस्तुकी प्रतीति अथवा एकान्तकी अनुपलब्धि ही एकान्तवादियोंके मतका निराकरणकर देती है, अतः इस विषय में अन्य प्रमाण देनेकी कोई आवश्यकता नहीं है । न तो पदार्थ सामान्यरूप है और न विशेषरूप, और न पृथक् पृथक् उभयरूप । किन्तु वस्तुके साथ सामान्य और विशेषका तादात्म्य सम्बन्ध है। सामान्यसे विशेषको और विशेषसे सामान्यको पृथक् नहीं किया जा सकता। सामान्य और विशेष वस्तुकी आत्मा हैं । सामान्य और विशेषको छोड़कर वस्तुका अन्य कोई स्वरूप नहीं है। इस प्रकारकी सामान्य-विशेषात्मक वस्तुकी प्रतीति विद्वज्जनोंको प्रत्यक्षसे होती है । और यह प्रत्यक्षसिद्ध प्रतीति ही एकान्तका निरास कर देती है। अथवा प्रत्यक्षसे एकान्तकी अनुपलब्धि एकान्तका निराकरण कर देती है। अतः एकान्तका निषेध करनेके लिये अनुमान आदि प्रमाणोंकी कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती है। प्रत्यक्ष सब प्रमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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