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________________ ६८ आप्तमीमांसा [ परिच्छेद-१ गयी है, जो कर्मोंके भेत्ता हैं, सब पदार्थों के ज्ञाता हैं और मोक्षमार्गके नेता हैं। प्रश्न-भगवान् अर्हन्तमें दोष और आवरणकी पूर्ण हानि हो जाती है, इस बातका क्या प्रमाण है ? उत्तर दोषावरणयोर्हानिनिश्शेषास्त्यतिशायनात् । क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः ॥४॥ किसी पुरुष-विशेषमें दोष और आवरणकी पूर्ण हानि हो जाती है क्योंकि दोष और आवरणकी हानिमें अतिशय देखा जाता है । जैसे खानसे निकाले हए सोने में कीट आदि बहिरङ्ग मल और कालिमा आदि अन्तरङ्ग मल रहता है, किन्तु अग्निमें पुटपाक आदि कारणोंके द्वारा सोने में दोनों प्रकारके मलोंका अत्यन्त नाश हो जाता है। कर्म दो प्रकारके होते हैं-द्रव्यकर्म और भावकर्म । द्रव्यकर्मके कार्य अज्ञान आदि जो भावकर्म हैं उन्हींका नाम दोष है और भावकमके कारण ज्ञानावरण आदि जो द्रव्यकर्म हैं उनको आवरण कहते हैं। दोष और आवरणकी हानिमें प्रकर्ष या अतिशय देखा जाता है । अर्थात् सब प्राणियोंमें दोष और आवरणकी हानि एकसी नहीं रहती है, किन्तु तरतमरूपसे रहती है। एक प्राणीमें सबसे कम हानि है, दूसरेमें उससे अधिक हानि है, तीसरेमें उससे भी अधिक हानि है, इस प्रकार दोष और आवरणकी हानिका क्रम वहाँ समाप्त होता है जहाँ हानि अपनी चरम सीमापर पहुंच जाती है, अर्थात् जहाँ पूर्ण हानि हो जाती है। जैसे एक प्राणीमें एक प्रतिशत दोष और आवरणकी हानि है, दूसरेमें दो प्रतिशत हानि है, तीसरेमें तीन प्रतिशत हानि है, इस प्रकार बढ़ते-बढ़ते किसी पुरुषमें शत प्रतिशत हानि भी हो सकती है। यही हानिकी चरम सीमा है। खानसे जो सोना निकलता है उसमें कीट आदि मल रहता है, इसीलिये उसको कनकपाषाण कहते हैं। जब कीट आदि मलको दूर करनेके लिये सोनेको अग्नि में पुटपाक ( क्रियाविशेष )के द्वारा तपाया जाता है, तो क्रमशः मलकी हानि होते-होते अन्तमें पूर्ण हानि हो जाती है, और सोना अपने शुद्ध रूपमें निकल आता है। यही बात दोष और आवरणकी हानिके विषयमें भी है। ___शंका-दोष और आवरणमें कार्यकारणभाव होनेसे आवरणकी हानि होनेपर दोषकी हानि अथवा दोषकी हानि होनेपर आवरणकी हानि स्वतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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