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________________ कारिका-४ ] तत्त्वदीपिका ६९ सिद्ध हो जाती है, अतः किसी एक की ही हानिको सिद्ध करना चाहिए था । दोनोंकी हानि क्यों सिद्ध की गयी ? उत्तर - दोष जीवका स्वभाव है और आवरण पुद्गलका स्वभाव है । दोष और आवरण में परस्परमें कार्यकारण सम्बन्ध है, इस बातको बतलानेके लिए दोनोंकी हानि सिद्ध की गयी है । यदि दोष और आवरणमेंसे किसी एककी हानि सिद्धकी जाती तो दोष और आवरण में कार्यकारण सम्बन्धका ज्ञान न होता । अतः दोनोंकी हानि बतलाना आवश्यक है । जो लोग ऐसा कहते हैं कि आत्मा अमूर्तीक है और कर्म मूर्तीक, इसलिए मूर्तीक कर्मका अमूर्तीक आत्मापर आवरण नहीं हो सकता । उनका ऐसा कहना ठीक नहीं है। इस बातको सब जानते हैं कि मदिरा आदि मूर्तीक पदार्थके द्वारा भी अमूर्तीक मन या आत्मापर आवरण देखा जाता है । यदि ऐसा कहा जाय कि मदिरा के द्वारा इन्द्रियोंपर आवरण होता है, आत्मापर नहीं, तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इन्द्रियाँ अचेतन हैं । जिस प्रकार जिस बोतल में मदिरा खखी रहती है उसपर अचेतन होनेके कारण कोई आवरण नहीं देखा जाता, उसी प्रकार इन्द्रियोंपर भी आवरण नहीं होना चाहिये । और इन्द्रियोंपर आवरण न होने से मूर्च्छा आदि भी नहीं होना चाहिये । इसलिये यह मानना पड़ेगा कि मूर्तीक वस्तुका अमूर्तीक वस्तुपर आवरण होता है । शंका- दोष और आवरणकी पूर्ण हानि पत्थर आदिमें देखी जाती है | अतः मीमांसकको यह अभीष्ट ही है कि कहींपर दोष और आवरणकी पूर्ण हानि हो जाती है । उत्तर - पूर्वपक्षने हमारे अभिप्रायको ठीक तरहसे नहीं समझा है । हमें अर्हन्तमें दोष और आवरणका पूर्ण अभाव सिद्ध करना है । अभाव चार प्रकारका होता है - प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव । उनमें से अर्हन्तमें दोष और आवरणका प्रध्वंसाभाव सिद्ध करना हमारा अभीष्ट है । विद्यमान वस्तुका नाश हो जाना प्रध्वंसाभाव कहलाता है । जैसे विद्यमान घटका नष्ट हो जाना घटका प्रध्वंसाभाव है । उसी प्रकार आत्मामें जो दोष और आवरण अनादिकालसे चले आ रहे हैं, उनका यदि नाश हो जाय तो वह दोष और आवरणका प्रध्वंसाभाव कहलायगा । पत्थरमें तो दोष और आवरणका होना त्रिकालमें भी संभव नहीं है । अतः पत्थरमें दोष और आवरणका प्रध्वंसाभाव नहीं है, किन्तु अत्यन्ताभाव है । जो अभाव सदा रहता है वह अत्यन्ताभाव कहलाता है, जैसे पत्थर में चेतनताका अभाव । किसी पुरुष विशेषमें आवरणका प्रध्वंसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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