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________________ ६७ कारिका-३] तत्त्वदीपिका आँखमें लगे हुये अञ्जनका, और दूरपना होनेपर भी पदार्थोंका ज्ञान हो जाता है, जैसे चन्द्रमा, सूर्य आदि का । जब आत्माका स्वभाव समस्त पदार्थोंको जाननेका है, तो प्रतिबन्ध ( ज्ञानावरण ) के दूर हो जानेपर वह समस्त पदार्थोंको जानेगा ही। जैसे अग्निका स्वभाव जलानेका है तो अग्निकी शक्तिमें कोई प्रतिबन्ध न होनेपर वह समस्त पदार्थों को जलायेगी ही। जब तक ज्ञानावरण कर्मका पूर्ण क्षय नहीं होता है तभी तक पदार्थोंको जाननेमें इन्द्रिय आदि परपदार्थोकी आवश्यकता रहती है, और ज्ञानावरण कर्मका पूर्ण क्षय हो जानेपर इन्द्रिय आदिकी अपेक्षा नहीं रहती है। जैसे चक्षुके द्वारा पदार्थोंको देखने में प्रकाशकी आवश्यकता होती है, किन्तु चामें एक विशेष अञ्जनके लगा लेनेसे अन्धेरेमें भी पदार्थ दिख जाते हैं, तथा पृथिवीके अन्दर गड़े हुये पदार्थोंका भी चाक्षुष ज्ञान हो जाता है । __ शंका- अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान में भी इन्द्रिय आदि परपदार्थोंकी आवश्यकता नहीं होती है, फिर भी वहाँ ज्ञानावरणका पूर्ण क्षय नहीं होता है, किन्तु एकदेश ही क्षय होता है । उत्तर-अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानमें इन्द्रिय आदिकी अपेक्षा नहीं होती है। इसका कारण यह है कि ये दोनों ज्ञान अवधिज्ञानावरण तथा मनःपर्ययज्ञानावरणके क्षयोपशमसे उत्पन्न होते हैं और अपने विषयको केवलज्ञानकी तरह ही पूर्णरूपसे प्रत्यक्ष जानते हैं । मतिज्ञान और श्रुतज्ञानमें यह बात नहीं है । ये दोनों ज्ञान मतिज्ञानावरण तथा श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशमसे उत्पन्न होते हैं और अपने विषयको एकदेशसे जानते हैं, पूर्णरूपसे नहीं। पदार्थोंको पूर्णरूपसे प्रत्यक्ष जानने के कारण अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान ये तीन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं, और पदार्थों को एकदेशसे जाननेके कारण मति और श्रुत ये दो ज्ञान परोक्ष हैं। इस प्रकार सर्वज्ञको मानने वाले बौद्ध, सांख्य आदि सम्प्रदायोंमें परस्परमें विरोध होने के कारण बुद्ध, कपिल आदि न तो सब ही सर्वज्ञ हो सकते हैं और न कोई एक ही । क्योंकि किसी एकको सर्वज्ञ माननेमें और दुसरोंको सर्वज्ञ न मानने में कोई यक्ति नहीं है। सर्वज्ञको न माननेवाले मीमांसक, चार्वाक आदि सम्प्रदाय भी, परस्परमें विरोध होनेके कारण युक्तिसंगत नहीं हैं । इसलिये अर्हन्त भगवान् ही दोषों और आवरणोंकी अत्यन्त हानि होनेसे और समस्त पदार्थों को प्रत्यक्ष जाननेके कारण संसारी प्राणियोंके प्रभु हैं, और गृद्धपिच्छ आदि सूत्रकारों द्वारा उन्हींको स्तुति की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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