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________________ आप्तमीमांसा [ परिच्छेद- १ इसलिये संसारी प्राणियोंका जो गुरु या स्वामी है, उसको सर्वज्ञ माननेमें किसी प्रकारका संशय या विरोध नहीं है । सर्वज्ञका स्वभाव समस्त पदार्थोंको जानने का है, इस स्वभावको छोड़कर अन्य कोई दूसरा ( अज्ञानरूप ) स्वभाव सर्वज्ञका नहीं है । संसारका ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है जिसको सर्वज्ञ न जानता हो । शंका- यह कैसे जाना कि सर्वज्ञका स्वभाव समस्त पदार्थोंको जाननेका है ? ६६ उत्तर- इस बातको तो स्वयं मीमांसक भी मानते हैं कि आत्माका स्वभाव समस्त पदार्थोंको जाननेका है । वेदके द्वारा भूत, भविष्यत्, 1 वर्तमान, सूक्ष्म एवं दूरवर्ती पदार्थोंका ज्ञान होता है, ऐसा मीमांसकोंका मत है । व्याप्तिज्ञानके द्वारा भी जिन वस्तुओं में व्याप्ति ( अविनाभाव ) है उन सब पदार्थोंका ज्ञान होता है । जैसे धूम और वह्निमें व्याप्तिज्ञान हो जाने से संसार के सब धूम और वह्निका ज्ञान हो जाता है । 'जहाँ जहाँ धूम होता वहाँ होती है और जहाँ वह्नि नहीं होती है वहाँ धूम नहीं होता है', इस प्रकारके ज्ञानका नाम व्याप्तिज्ञान है । अतः यह बात सुनिश्चित है कि आत्माका स्वभाव समस्त पदार्थोंको जानने का है । शंका- यदि आत्माका स्वभाव समस्त पदार्थोंको जाननेका है तो सबको सब पदार्थों का ज्ञान न होकर कुछ ही पदार्थों का ज्ञान क्यों होता है ? उत्तर - सबको सब पदार्थों का ज्ञान नहीं होता है, इसका कारण ज्ञानावरण कर्मका उदय है । ज्ञानावरण कर्मका स्वभाव ज्ञानके आवरण करनेका है। जितने अंशमें ज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होता है उतने ही अंशमें पदार्थों का ज्ञान आत्माको होता है । जैसे मदिरा पीने से चेतना शक्ति कुण्ठित हो जाती है, इस कारण मदिरा पीनेवाले व्यक्तिको स्वयं अपने विषय में भी सुध नहीं रहती है, उसी प्रकार ज्ञानावरण कर्मके सम्बन्धसे जीवकी ज्ञानशक्ति तिरोहित हो जाती है । और जब ज्ञानावरण कर्मका पूर्ण क्षय हो जाता है तब यह आत्मा संसार के समस्त पदार्थों को प्रत्यक्ष जानने लगता है । I शंका- ज्ञानावरण कर्मसे रहित आत्मा भी निकटवर्ती वर्तमान पदार्थों का ही पूरा ज्ञान कर सकता है, न कि सूक्ष्म, दूरवर्ती आदि पदार्थों का । उत्तर - निकटता ज्ञानका कारण नहीं है, और दूरपना अज्ञानका कारण नहीं है । निकटता होनेपर भी पदार्थों का ज्ञान नहीं होता है, जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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