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________________ ४८ आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१ माध्यमिक इस मतके संस्थापक आचार्य नागार्जुन हैं। इनके द्वारा रचित 'माध्यमिक कारिका' माध्यमिक सिद्धान्तोंके प्रतिपादनके लिए सर्वोत्तम ग्रन्थ है। बुद्धके द्वारा प्रतिपादित मध्यममार्गके अनुयायी होनेके कारण इस मतका नाम माध्यमिक पड़ा है । तथा शून्यको परमार्थ माननेके कारण यह शून्यवाद भी कहा जाता है। माध्यमिकोंके अनुसार विज्ञानकी भी सत्ता नहीं है। इन्होंने योगाचारसे भी एक कदम आगे बढ़कर कहा कि जब अर्थ नहीं है तो ज्ञानको माननेकी भी क्या आवश्यकता है। इनके अनुसार शून्य ही परमार्थ तत्त्व है। शून्यका वास्तविक स्वरूप क्या है इस विषयमें विद्वानोंमें पर्याप्त मतभेद है। कई दार्शनिकोंने शून्यका अर्थ सत्ताका निषेध या अभाव किया है। किन्तु माध्यमिक आचार्योंके ग्रन्थोंके अवलोकनसे शून्यका कुछ दूसरा ही अर्थ निकलता है। यहाँ शून्यका वास्तविक तात्पर्य तत्त्वकी अवाच्यतासे है। किसी भी पदार्थके स्वरूप निर्णयके लिए मुख्यरूपसे चार कोटियोंका प्रयोग किया जा सकता है--अस्ति, नास्ति, उभय और अनुभय । परमार्थ तत्त्वका इन चार प्रकारकी कोटियों द्वारा वर्णन या कथन नहीं किया जा सकता है। अतः परमार्थ तत्त्व चार कोटियोंसे रहित अर्थात् अवाच्य है। आचार्य नागार्जुनके अनुसार तत्त्वका लक्षण निम्न प्रकार है तत्त्व अपरप्रयत्य है अर्थात् एकके द्वारा दूसरेको इसका उपदेश नहीं दिया जा सकता। शान्त है अर्थात् स्वभावरहित है। इसका प्रतिपादन किसी भी शब्दके द्वारा नहीं किया जा सकता है अर्थात् तत्त्व अशब्द है । यह निर्विकल्पक है अर्थात् चित्त इस तत्त्वको नहीं जान सकता। तथा अनानार्थ अर्थात् नाना अर्थोंसे रहित है। आचार्य नागार्जुनने 'विग्रहव्यावर्तिनी' में प्रतीत्य समुत्पादको ही शून्यता कहा है । संसारके समस्त पदार्थ हेतु-प्रत्ययसे उत्पन्न होते हैं, अतः उनका १. न सन् नासन् न सदसन्न चाप्यनुभयात्मकम् । चतुष्कोटिनिनिर्मुक्तं तत्त्वं माध्यमिका विदुः ॥ -माध्यमिक कारिका ११७ २. अपरप्रत्ययं शान्तं प्रपञ्चैरप्रपञ्चितम् । निर्विकल्पमनानार्थमेतत् तत्त्वस्य लक्षणम् ।। -माध्यमिक कारिका १८।९। ३. यश्च प्रतीत्य भावो भावानां शून्यतेति साह्य क्ता। प्रतीत्य यश्च भावो भवति हि तस्यास्वभावत्वम् ॥ -विग्रहव्यावति २२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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