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________________ कारिका-३] तत्त्वदीपिका ४७ है। किसी पदार्थकी उपलब्धिके समय तीन बातोंकी प्रतीति होती हैग्राह्य ( घट, पट आदि ) ग्राहक ( ज्ञाता ) और ज्ञान । ये तीनों एकाकार विज्ञानके ही परिणमन हैं। भ्रान्त दृष्टिवाला व्यक्ति अभिन्न बुद्धिमें ग्राह्य, ग्राहक और ज्ञानकी कल्पना करके उसे भेदवाली समझता है । वास्तवमें विज्ञान एकरूप ही है, भिन्न भिन्न नहीं। बुद्धिका न तो कोई ग्राह्य है और न ग्रहक है। ग्राह्य-ग्राहकभावसे रहित बुद्धि स्वयं प्रकाशित होती है। आलयविज्ञान विज्ञानवादमें आलयविज्ञानका स्थान महत्त्वपूर्ण है। आलयविज्ञान वह तत्त्व है जिसमें संसारके समस्त धर्मोके बीज सन्निविष्ट रहते हैं, उत्पन्न होते हैं तथा पुनः विलीन हो जाते हैं । आलय का अर्थ स्थान है। जितने क्लेश उत्पादक धर्म हैं उनके बीजोंका यह स्थान है। इसी विज्ञानसे संसारके समस्त पदार्थ उत्पन्न होते हैं। विश्वके समस्त धर्म फलरूप होनेसे इस विज्ञानमें आलीन ( सम्बद्ध ) रहते हैं, तथा यह आलय विज्ञान भी उन धर्मोंका हेतु होनेसे उनके साथ सदा सम्बद्ध रहता है। आलयविज्ञानका स्वरूप समुद्रके दृष्टान्तसे समझमें आ सकता है। समुद्रमें हवाके झकोरोंसे तरंगे उठा करती हैं, वे कभी विराम नहीं लेतीं। उसी प्रकार आलय विज्ञानमें भी विषयरूपी वायके झकोरोंसे चित्र विचित्र विज्ञानरूपी तरंगे उठती हैं और अपना खेल दिखाया करती हैं, तथा उनका कभी विराम नहीं होता। १. चित्तमात्रं न दृश्योऽस्ति द्विधा चित्तं हि दृश्यते । ग्राह्यग्राहकभावेन शाश्वतोच्छेदवजितम् ॥ -लंकावतारसूत्र ३१६५ २. अविभागोऽपि बुद्धयात्मा विपर्यासितदर्शनैः । ग्राह्यग्राहकसंवित्तिभेदवानिव लक्ष्यते ॥ ---प्रमाणवा० ३।३५४ ३. नान्योऽनुभाव्यो बुद्धयास्ति तस्याः नानुभवोऽपरः । ग्राह्यग्राहकवैधुर्यात् स्वयं सैव प्रकाशते ॥ -प्रमाणवा० ३१३२७ ४. तत्र सर्वसांक्लेशिकधर्मबीजस्थानत्वाद् आलयः । आलयः स्थानमिति पर्यायौ। अथवा आलीयन्ते उपनिबध्यन्ते अस्मिन् सर्वधर्मा कार्यभावेन । यद्वा आलीयते उपनिबध्यते कारण भावेन सर्वधर्मेषु इत्यालयः । ---त्रिशिका भाष्य पृ० १८ ५. सर्वधर्मा हि आलीना विज्ञाने तेषु तत्तथा । अन्योन्यफलभावेन हेतुभावेन सर्वदा ॥ --मध्यान्तविभाग पृ० २८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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