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आप्तमीमांसा
[ परिच्छेद- १
प्रामाणिक मानते थे । इनके अनुसार तथागतके आध्यात्मिक उपदेश 'सुत्तपिटक' के कुछ सूत्रों (सूत्रान्तों ) में सन्निविष्ट हैं । ये 'अभिधर्म पिटक' को बुद्धवचन न होनेसे प्रमाण नहीं मानते । यत्रोमित्रने 'अभिधर्मकोश' की टीकामें इस नामकरणकी पुष्टि की है । आचार्य कुमारलात इस मतके प्रतिष्ठापक हैं ।
योगाचार
योगाचार मतके अनुसार बाह्य पदार्थकी सत्ता ही नहीं है । केवल अन्तरङ्ग पदार्थ ( विज्ञान ) की ही सत्ता है । इसी कारण इस मतका दूसरा नाम विज्ञानवाद भी है । आचार्य असंग द्वारा रचित 'योगाचार भूमिशास्त्र' नामक ग्रन्थमें योगाचारके सिद्धान्तोंका वर्णन है । इस मतके योगाचार नाम पड़नेका कारण यही ग्रन्थ है । हम देख चुके हैं कि सौत्रांतिक बाह्य पदार्थको प्रत्यक्ष न मानकर अनुमेय मानता है । योगाचार सौत्रांतिकसे भी एक कदम आगे बढ़कर कहता है कि जब बाह्य अर्थका प्रत्यक्ष ही नहीं होता है, तो उसे माननेकी भी क्या आवश्यकता है । जब बाह्यार्थी सत्ता ज्ञान पर अवलम्वित है तो ज्ञानकी ही वास्तविक सत्ता है, बाह्यार्थ तो निःस्वभाव तथा स्वप्न के समान हैं | विज्ञानको चित्त, मन तथा विज्ञप्ति भी कहते हैं | वसुबन्धुने 'विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि' में विज्ञानवादका सुन्दर विवेचन किया है । चित्तको छोड़कर अन्य कोई पदार्थ सत् नहीं है । यद्यपि बाह्य पदार्थ की सत्ता नहीं है, फिर भी अनादिकालसे चली आ रही वासनाके कारण विज्ञानका बाह्यार्थरूपसे प्रतिभास होता है । जैसे भ्रान्तिके कारण एक चन्द्रमामें दो चन्द्रमाओंका प्रतिभास हो जाता है, उसी प्रकार वासना के कारण विज्ञानमें बाह्यार्थकी प्रतीति होने लगती है । बाह्य पदर्थोंकी उपलब्धि ठीक उसी प्रकारकी है जिस प्रकार स्वप्नमें प्राणी नाना प्रकारके पदार्थोंका अनुभव करता है । इस जगत् में बाह्य दृश्य पदार्थ की सत्ता नहीं है, किन्तु एकरूप चित्त ही विचित्र (नाना ) रूपोंमें दिखलाई पड़ता है । कभी वह देह के रूपमें और कमी भोगके रूपमें मालूम पड़ता है । चित्तकी ही ग्राह्य और ग्राहकरूपसे प्रतीति होती
१. कः सौत्रान्तिकार्थः ? ये सूत्रप्रामाणिका न तु शास्त्रप्रामाणिकास्ते सौत्रान्तिकाः । —स्फुटार्था० पृ० १२
२. दृश्यं न विद्यते बाह्ययं चित्तं चित्रं हि दृश्यते । देहभोगप्रतिष्ठानं चित्तमात्रं वदाम्यहम् ॥
- लंकावतारसूत्र ३।३३
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