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________________ कारिका-३] तत्त्वदीपिका ४५ अभ्यन्तर समस्त धर्मोंके स्वतंत्र अस्तित्वको स्वीकार करते हैं। वैभाषिक सम्प्रदायका प्राचीन नाम 'सर्वास्तिवाद' था। आर्य कात्यायनीपुत्र रचित 'अभिधर्मज्ञानप्रस्थानशास्त्र' वैभाषिकोंका सर्वमान्य ग्रन्थ है। इस ग्रन्थपर 'अभिधर्मविभाषाशास्त्र' नामक एक भाष्यका निर्माण किया गया है। वैभाषिकोंके सिद्धान्त इसी विभाषा पर प्रतिष्ठित होनेके कारण इस मतका नाम वैभाषिक पड़ा है । यशोमित्रने 'अभिधर्मकोश' की 'स्फुटार्था' नामक टीकामें इस शब्दकी यही व्याख्या की है। वसुबन्धु और संघभद्र वैभाषिक मतके प्रमुख आचार्य हैं। सौत्रान्तिक सौत्रान्तिकोंके अनुसार बाह्य पदार्थका प्रत्यक्ष नहीं होता है, किन्तु अनुमानके द्वारा बाह्य पदार्थका अनुमानरूप ज्ञान होता है। इनके मतसे प्रत्येक पदार्थको क्षणिक होनेके कारण उसका साक्षात्कार करना असंभव है । ज्ञान अर्थसे उत्पन्न होता है। जिस क्षणमें पदार्थ ज्ञानको उत्पत्र करता है उसी क्षणमें वह नष्ट हो जाता है। फिर ज्ञान पदार्थका साक्षात्कार कैसे कर सकता है। ज्ञान और ज्ञेयका काल भिन्न है। जिस क्षणमें अर्थ है उस क्षणमें ज्ञान नहीं रहता है और जिस क्षणमें ज्ञान उत्पन्न होता है उस क्षणमें अर्थ नष्ट हो जाता है। अतः ज्ञानके द्वारा बाह्यार्थका प्रत्यक्ष संभव नहीं है । जो पदार्थ ज्ञानको उत्पन्न करता है वह तत्क्षण ही नष्ट हो जाता है, लेकिन वह अपना आकार ज्ञानको समर्पित कर जाता है, जिससे उस पदार्थका अनुमान किया जाता है। पदार्थके नील, पीत आदि आकारोंका प्रतिविम्ब चित्तके पटपर अंकित हो जाता है और चित्त उसके द्वारा उसके उत्पादक बाह्य पदार्थोंका अनुमान करता है। बाह्य पदार्थ प्रत्यक्ष गम्य न होकर अनुमानगम्य हैं। अत: सौत्रान्तिकोंके इस सिद्धान्तका नाम बाह्यार्थानुमेयवाद है। सौत्रान्तिक नामकरणका कारण यह है कि ये 'सुत्तपिटक' को ही १. विभाषया दिव्यन्ति चरन्ति वा वैभाषिकाः । विभाषां वा वदन्ति वैभाषिकाः । -अभिध० को० पृ० १२ । २. भिन्नकालं कथं ग्राह्यं इति चेद् ग्राह्यतां विदुः । हेतुत्वमेव युक्तिज्ञास्तदाकारार्पणक्षमम् ।। -प्रमाण वा० ३।२४७ । ३. नीलपीतादिभिश्चित्रबुद्ध्याकारैरिहान्तरैः । सौत्रान्तिकमते नित्यं बाह्यर्थस्त्वनुमीयते ॥ -सर्वसिद्धान्तसंग्रह पृ० १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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