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आप्तमीमांसा
[ परिच्छेद- १
प्रदीपभा में मणिबुद्धि की अपेक्षा मणिप्रभा में मणिबुद्धि कुछ विशेषता लिए हुए है ।
एक कक्षके अन्दर मणि रक्खा हुआ है । कक्षका दरवाजा बन्द है । कक्ष के दरवाजेके छिद्रमेंसे मणिका प्रकाश बाहर आ रहा है । कुछ दूर पर खड़ा हुआ व्यक्ति समझता है कि मणि दरवाजेके छिद्रमें रखा है । लेकिन जब वह मणिको उठाने के लिए आता है तो छिद्रमें मणिको न पाकर दरवाजा खोलकर अन्दर चला जाता है और मणि उठा लेता है । यहाँ विचारणीय बात यह है कि उस पुरुषको मणिप्रभामें जो मणिज्ञान हुआ है यद्यपि वह मिथ्या है, फिर भी मणिकी प्राप्ति में सहायक होनेके कारण वह अर्थक्रियाकारी है । यही बात अनुमानको प्रमाण माननेके विषयमें भी है । यद्यपि अनुमान और अनुमानाभास दोनोंका विषय मिथ्या है, फिर भी अनुमान वस्तुकी प्राप्ति में कारण होनेसे प्रमाण माना गया है । अनुमान मणिप्रभा मणिबुद्धकी तरह है, और अनुमानाभास प्रदीपप्रभा में मणिबुद्धिकी तरह हैं ।
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इस प्रकार स्वलक्षण और सामान्य लक्षणका स्वरूप जानना चाहिए । स्वलक्षण को अर्थक्रियामें समर्थ होनेके कारण परमार्थसत् भी कहते हैं । सामान्यलक्षण अर्थक्रियामें नितान्त असमर्थ है | अतः वह संवृतिसत् कहलाता है ।
दार्शनिक विकास
दार्शनिक विकासकी दृष्टिसे बौद्ध दार्शनिकोंके चार भेद होते हैं१. वैभाषिक ( बाह्यार्थ प्रत्यक्षवाद ), २. सौत्रान्तिक ( बाह्यार्थानुमेयवाद ), ३. योगाचार ( विज्ञानवाद ) और ४. माध्यमिक ( शून्यवाद ) । यह श्रेणीविभाग 'सत्ता' के आधार पर किया गया है ।
वैभाषिक
वैभाषिक के अनुसार बाह्य पदार्थोंका प्रत्यक्ष होता है । ये बाह्य तथा
१. मणिप्रदीप्रभयोः मणिबुद्धयाभिधावतो: । मिथ्याज्ञानाविशेषऽपि विशेषोऽर्थक्रियांप्रति ॥ २. यथा तथाऽयथार्थत्वेऽप्यनुमानतदाभयोः । अर्थक्रियानुरोधेन प्रमाणत्वं व्यवस्थितम् ॥ ३. अर्थं क्रियासमर्थंयत् तदत्रपरमार्थसत् । अन्यत् संवृतिसत् प्रोक्तं ते स्वसामान्यलक्षणे ॥
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-प्रमाणवा० २१५७
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