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________________ कारिका-३] तत्त्वदीपिका ३७ वस्तुको नाम, जाति, गुण, क्रिया आदिसे संयुक्त करके उसका ज्ञान करते हैं तो वही संज्ञास्कन्ध कहलाता है । सं-कारस्कन्ध-सूक्ष्म मानसिक प्रवृत्तिको संस्कार कहते हैं। रागादि क्लेश, मद, मानादि उपक्लेश और धर्म-अधर्म ये सब संस्कारस्कन्धके अन्तर्गत हैं। मुख्यरूपसे संस्कारस्कन्धके द्वारा राग और द्वेषका ग्रहण किया जाता है। विज्ञानस्कन्ध—'मैं' इत्याकारक ज्ञान तथा पाँच इन्द्रियोंसे जन्य रूप, रस, गन्ध आदि विषयोंका ज्ञान, ये दोनों ज्ञान विज्ञानस्कन्धके द्वारा कहे जाते है। विज्ञान और संज्ञा दोनों ही ज्ञान हैं। इनमें वही अन्तर है जो निर्विकल्पक प्रत्यक्ष और सविकल्पक प्रत्यक्षमें है। भदन्त नागसेनने 'मिलिन्द प्रश्न'में यवन राजा मिलिन्दके लिए नैरात्म्यवादका सुन्दर विवेचन किया है। जिस प्रकार चक्र, दण्ड, धुर, रस्सी आदिको छोड़कर रथकी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है, किन्तु उक्त अवयवोंके आधारपर केवल व्यवहारके लिए 'रथ' नाम रख दिया गया है, उसी प्रकार रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान इन पञ्च स्कन्धोंको छोड़कर आत्माकी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है। किन्तु पञ्च स्कन्धोंके आधारपर केवल व्यवहारके लिए आत्मा शब्दका प्रयोग किया जाता है। क्षणभङ्गवाद क्षणभङ्गवाद बौद्धदर्शनका सबसे बड़ा सिद्धान्त है । संसारके समस्त पदार्थ क्षणिक हैं, वे प्रति क्षण बदलते रहते हैं, विश्वमें कुछ भी स्थिर नहीं है, चारों ओर परिवर्तन ही परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है, हमें अपने शरीर पर ही विश्वास नहीं है, जीवनका कोई ठिकाना नहीं है, इत्यादि भावनाओंके कारण क्षणभंगवादका आविर्भाव हुआ है । वैसे तो प्रत्येक दर्शन भंग (नाश) को मानता है, किन्तु बौद्धदर्शनकी यह विशेषता है कि कोई भी वस्तु एक क्षण ही ठहरती है, और दूसरे क्षणमें वह वही नहीं रहती, किन्तु दूसरो हो जाती है । अर्थात् वस्तुका प्रत्येक क्षणमें स्वाभाविक नाश होता रहता है । तर्कके आधार पर क्षणिकत्वकी सिद्धि इसप्रकारकी गई है—'सर्व क्षणिक सत्त्वात्' अर्थात् सब पदार्थ क्षणिक हैं, सत् होनेसे । १. संज्ञास्कन्धः सविकल्पप्रत्ययः संज्ञासंसर्गयोग्यप्रतिमासः । यथा डित्थः कुण्डली गौरी ब्राह्मणो गच्छतीत्येवंजातीयकः । -भामती २. विज्ञानस्कन्धोऽहमित्याकारो रूपादिविषयः इन्द्रियजन्यो वा दण्डायमानः । -भामती २।२।१८। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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