SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८ आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१ सत् वह है जो अर्थक्रिया (कुछ काम) करे' । अब यह देखना है कि अर्थक्रिया नित्य पदार्थमें हो सकती है या नहीं। बौद्धदर्शनका कहना है कि नित्य वस्तुमें अर्थक्रिया हो ही नहीं सकती। क्योंकि नित्य वस्तु न तो युगपत् (एक साथ) अर्थक्रिया कर सकती है और न क्रमसे । नित्य वस्तु यदि युगपत् अर्थक्रिया करती है तो संसारके समस्त पदार्थोंको एक साथ एक समयमें ही उत्पन्न हो जाना चाहिए, और ऐसा होनेपर आगेके समयमें नित्य वस्तुको कुछ भी काम करनेको शेष नहीं रहेगा। अतः वह अर्थक्रियाके अभावमें अवस्तु हो जायगी। इसप्रकार नित्यमें युगपत् अर्थक्रिया नहीं बनती है। नित्य वस्तु क्रमसे भी अर्थ क्रिया नहीं कर सकती । नित्य वस्तु यदि सहकारी कारणोकी सहायतासे क्रमसे कार्य करती है, तो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि सहकारी कारण उसमें कुछ विशेषता (अतिशय) उत्पन्न करते हैं या नहीं ? यदि सहकारी कारण नित्यमें कुछ विशेषता उत्पन्न करते हैं तो वह नित्य नहीं रह सकती। और यदि सहकारी कारण नित्यमें कुछ भी विशेषता उत्पन्न नहीं करते हैं तो सहकारीकारणों के मिलने पर भी वह पहलेकी तरह कार्य नहीं कर सकेगी। दूसरी बात यह भी है कि नित्य स्वयं समर्थ है। अतः उसे सहकारी कारणोंकी कोई अपेक्षा भी नहीं होगी। फिर क्यों न वह एक समयमें ही सब काम कर देगी। इसप्रकार नित्य पदार्थमें न तो युगपत् अर्थक्रिया हो सकती है और न क्रमसे । अर्थक्रियाके अभावमें वह सत् भी नहीं कहला सकता। इसलिए जो सत् है वह नियमसे क्षणिक है । क्षणिक ही अर्थक्रिया कर सकता है । यही क्षणभंगवाद है। क्षणभंगके कारण ही बौद्धदर्शन विनाशको निर्हेतुक मानता है। प्रत्येक क्षणमें विनाश स्वयं होता है, किसी दूसरेके द्वारा नहीं। घटका जो विनाश दण्डके द्वारा होता हुआ देखा जाता है वह घटका विनाश नहीं, किन्तु कपालकी उत्पत्ति है । अन्यापोहवाद जब कि अन्य सब दर्शन शब्दको अर्थका वाचक मानते हैं तब इस विषयमें बौद्धदर्शनकी कल्पना नितान्त भिन्न है । बौद्धदर्शनके अनुसार शब्द १, अर्थक्रियासामर्थ्यलक्षणत्वाद्वस्तुनः । -न्यायबिन्दु पृ० १७। २. तस्मादनश्वरत्वे कदाचिदपि नाशायोगात्, दृष्टत्वाच्च नाशस्य, नश्वरमेव तद्वस्तु स्वहेतोरुपजातमङ्गीकर्तव्यम् । तस्मादुत्पन्नमात्रमेव विनश्यति उत्पत्तिक्षण एव सत्त्वात्। –तर्कभाषा पृ० १९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy