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आप्तमीमांसा
[परिच्छेद-१ आत्माभिनिवेश तथा आत्मवाद भी कहते हैं। अनात्मवादका दूसरा नाम पुद्गल नैरात्म्य भी है।
यहाँ यह प्रश्न होता है कि जब आत्मा ही नहीं है तब जन्म-मरण किसका होता है ? इसका उत्तर यह है कि बुद्ध ने पारमार्थिकरूपसे ही आत्माका निषेध किया है, व्यावहारिकरूपसे नहीं। बौद्धदर्शनमें आत्मा पाँच स्कन्धोंका समुदायमात्र है । रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान ये पाँच स्कन्ध मिलकर ही आत्मा कहलाते हैं। इनके अतिरिक्त आत्मा कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं है। ये ही पाँच स्कन्ध कर्म और क्लेशोंसे सम्बन्धित होनेपर अन्तराभवसन्ततिके क्रमसे जन्म धारण करते है । मृत्यु
और जन्मके बीचकी अवस्थाका नाम अन्तराभव है। इस प्रकार पञ्च स्कन्ध ही जन्म धारण करते हैं और पञ्च स्कन्धकी सन्तान समयानुसार क्लेश और कर्मोके कारण बढ़ती है और परलोकको प्राप्त होती है । ___ वास्तवमें प्रत्येक आत्मा नामरूपात्मक है। नामके द्वारा मानसिक वत्तियोंका बोध होता है, और रूपका तात्पर्य शारीरिक वृत्तियोंसे है। आत्मा शरीर और मन, भौतिक और मानसिक वृत्तियोंका संघातमात्र है। रूप एक ही प्रकारका है। लेकिन नाम चार प्रकारका है-वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञान ।
रूपस्कन्ध-वह वस्तु जिसमें भारीपन हो और जो स्थान घेरती हो रूप कहलाती है। रूप शब्दकी व्यत्पत्ति दो प्रकारसे की गई है। 'रूप्यन्ते एभिर्विषयाः' अर्थात् जिनके द्वारा विषयोंका निरूपण किया जाय ऐसी इन्द्रियोंका नाम रूप है। 'रूप्यन्ते इति रूपाणि' अर्थात् विषय । यह दूसरी व्युत्पत्ति है। इसप्रकार रूपस्कन्ध विषयोंके साथ सम्बद्ध इन्द्रियों तथा शरीरका वाचक है।
वेदनास्कन्ध-बाह्य वस्तुका ज्ञान होनेपर चित्तकी जो विशेष अवस्था होती है वही वेदना स्कन्ध है । वेदना तीन प्रकारकी होती है-सुख, दुख, तथा न सुख-न दुःख । प्रिय वस्तुके स्पर्शसे सुख, अप्रिय वस्तुके स्पर्शसे दुःख तथा प्रिय-अप्रिय दोनोंसे भिन्न वस्तुके स्पर्शसे न सुख और न दुःखरूप वेदना होती है।
संज्ञास्कन्ध–सविकल्पक ज्ञानका नाम संज्ञास्कन्ध है। जब हम किसी १ स्कन्धमात्रं तु कर्मक्लेशाभिसंस्कृतम् । अन्तराभवसन्तत्या कुक्षिमेति प्रदीपवत् ॥
--अभि० को० ।
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