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तत्त्वदीपिका
अनात्मवाद
अन्य दर्शनोंने आत्म तत्त्वको प्रधानता दी है । जैनदर्शनकी प्रतिक्रिया वेदोंकी अपोरुषेयता, ईश्वरवाद और यज्ञविधानों तक ही सीमित रही, लेकिन बौद्धदर्शनने वेदोंके आत्मवादको सर्वथा अस्वीकार कर दिया । अपने जीवन में जिसे हम पकड़ नहीं सकते, मानसिक और भौतिक जगतमें जिसका चिह्न भी नहीं मिलता, उस कल्पित स्थिर तत्त्वके विषयमें चिन्तन करने से क्या लाभ । आत्मदर्शनकी कल्पित समस्याओंमें उलझकर मनुष्य अपने जीवनकी प्रत्यक्ष समस्याओंको भूल जाते हैं और उनका नैतिक पतन होने लगता है । अतः अपने समय के जन-समाजका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करके क्रान्तिदर्शी बुद्धने यही परिणाम निकाला कि जीवनके परे आत्मा-परमात्मा जैसी वस्तुओं के विषयमें बहस करना जीवनके अमूल्य क्षणोंको व्यर्थ ही नष्ट करना है । बुद्धने सोचा कि आत्माका अस्तित्त्व मानना ही सब अनर्थों की जड़ है । क्योंकि आत्माके होनेपर ही अहंभाव का उदय होता है । जो पुरुष आत्माको देखता है उसका आत्मामें शाश्वत स्नेह बना रहता है । स्नेहसे तृष्णा उत्पन्न होती है। और फिर तृष्णा दोषोंको ढक लेती है । तृष्णावाला पुरुष 'ये विषय मेरे हैं' इस विचारसे विषयोंके साधनोंको ग्रहण करता है । अत: जब तक आत्माभिनिवेश है तब तक इस संसारकी सत्ता है । आत्माके सद्भावमें ही परका ज्ञान होता है । स्व और परके विभागसे राग और द्वेषकी उत्पत्ति होती है । राग-द्वेषके कारण ही अन्य समस्त दोष उत्पन्न होते हैं । अतः समस्त दोषोंके नाशका सर्वोत्तम उपाय यही है कि आत्माको ही न माना जाय । न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी । जब आत्मा ही नहीं है तब स्नेह किसमें होगा । स्नेहके अभाव में तृष्णा नहीं होगी । अतः समस्त दोषोंकी उत्पत्तिका निदान आत्मदृष्टि ही है । आत्मदृष्टिको सत्कायदृष्टि, आत्मग्राह,
कारिका - ३ ]
१. यः पश्यत्यात्मानं तस्याहमिति शाश्वतः स्नेह : । स्नेहात् गुणेषु तृष्यति तृष्णा दोषांस्तिरस्कुरुते ॥ गुणदर्शी परितृष्यन् ममेति तत्साधनमुपादत्ते । तेनात्माभिनिवेशो यावत् तावत्तु संसारः ॥ आत्मनि सति परसंज्ञा स्वपरविभागात् परिग्रहद्वेषौ । अनयोः संप्रतिबन्धात् सर्वे दोषा प्रजायन्ते ॥
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- बोधिचर्यावतारपंजिका पृ० ४९२ ।
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