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आप्तमीमांसा
[परिच्छेद-१ सक उपायोंसे आजीविकाका उपार्जन करना ही श्रेयस्कर है।
सम्यक व्यायाम-यहाँ व्यायामका अर्थ प्रयत्न या उद्योग है । शुभ कर्मोके करनेका प्रयत्न, इन्द्रिय दमनका प्रयत्न, बुरी भावनाओंको रोकनेका प्रयत्न, अच्छी भावनाओंके उत्पन्न करनेका प्रयत्न, इत्यादि सम्यक् व्यायाम है।
सम्यक् स्मृति-काय, वेदना, चित्त तथा धर्मके वास्तविक स्वरूपको जानना तथा उसकी स्मृति सदा बनाये रखना सम्यक् स्मृति है । सम्यक् समाधिके लिए सम्यक् स्मृति अत्यावश्यक है।
सम्यक समाधि-राग, द्वेष आदिका अभाव हो जाने पर चित्तकी एकाग्रताका नाम सम्यक् समाधि है । समाधिके द्वारा चित्तशुद्धि होती है और शील (सात्त्विक कार्य)से शरीर शुद्धि होती है । ज्ञानकी उत्पत्तिके लिए कायशुद्धि और चित्तशुद्धि आवश्यक है।
यह अष्टांग मार्ग है । इस मार्ग पर चलनेसे प्रत्येक व्यक्ति अपने दुःखोंका नाश करके निर्वाण प्राप्त कर लेता है। इसीलिए यह अन्य समस्त मार्गोंमें श्रेष्ठ माना गया है।
प्रतीत्य समुत्पाद प्रतीत्य समुत्पाद बौद्धदर्शनका एक विशेष सिद्धान्त है । प्रतीत्य समुत्पादका अर्थ है 'सापेक्षकारणतावाद' अर्थात् किसी वस्तुकी प्राप्ति होने पर अन्य वस्तुकी उत्पत्ति । इस प्रतीत्य समुत्पादके १. अविद्या २. संस्कार ३. विज्ञान ४. नामरूप ५. षडायतन ६. स्पर्श ७. वेदना ८. तृष्णा ९. उपादान १०. भव ११. जाति और १२. जरामरण ये बारह अङ्ग हैं, जो तीन काण्डोंमें विभक्त हैं। इन अङ्गोंको निदान भी कहते हैं । प्रतीत्यसमुत्पादका नाम भवचक्र भी है। क्योंकि इसीके कारण संसारका चक्र चलता रहता है। बारह अङ्गोंमेंसे प्रथम दो का सम्बन्ध अतीत जन्मसे है तथा अन्तिम दोका सम्बन्ध भविष्यत् जन्मसे है। शेष आठका सम्बन्ध वर्तमान जीवनसे है। संसारका प्रधान कारण अविद्या है। अविद्यासे संस्कारकी उत्पत्ति होती है । संस्कारसे विज्ञान, विज्ञानसे नामरूप, नामरूपसे षडायतन, पडायतनसे स्पर्श, स्पर्शसे वेदना, वेदनासे तृष्णा, तृषणासे उपादान, उपादानसे भव, भवसे जाति और जातिसे जरामरणकी उत्पत्ति होती है । इसप्रकार संसारका चक्र चलता रहता है। १. स प्रतीत्यसमुत्पादो द्वादशांगस्त्रिकाण्डकः ।
पूर्वापरान्तयो· द्वे मध्येऽष्टौ परिपूरणाः ॥ --अभि० को० ३।२० ।
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