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________________ कारिका-३] तत्त्वदीपिका मानसिक कर्म दो प्रकारके होते हैं—कुशल और अकुशल । इन दोनोंको ठीक-ठीक जानना सम्यग्दृष्टि है। आर्यसत्योंको भलीभाँति जानना भी सम्यग्दृष्टि है । प्राणातिपात (हिंसा) अदत्तादान (चोरी) और मिथ्याचार (व्यभिचार) ये तीन कायिक अकुशल कर्म हैं । इनसे उल्टे अहिंसा, अचौर्य और अव्यभिचार ये तीन कायिक कुशल कर्म हैं। मृषावचन (झूठ) पिशुन वचन (चुगली) परुषवचन (कटुवचन) और संप्रलाप (बकवाद) ये चार वाचिक अकुशल कर्म हैं। इनसे उल्टे चार वाचिक कुशल कर्म हैं। अभिध्या (लोभ) व्यापाद(प्रतिहिंसा) और मिथ्यादृष्टि (झूठी धारणा) ये तीन मानसिक अकुशल कर्म हैं। इनसे उल्टे तीन मानसिक कुशल कर्म हैं। लोभ, दोष तथा मोह ये तीन अकुशल कर्मके मूल हैं। अलोभ, अदोष तथा अमोह ये तीन कुशल कर्मके मूल हैं । इन सबका ज्ञान आवश्यक है। सम्यक् संकल्प-संकल्पका अर्थ चिश्चय है। निष्कामताका, अद्रोहका तथा अहिंसाका निश्चय करना सम्यक संकल्प है। प्रत्येक पुरुषको यह दृढ़ निश्चय करना चाहिए कि वह विषयोंकी कामना न करेगा, किसीसे द्रोह न करेगा और किसी भी प्राणीकी हिंसा न करेगा। . सम्यकवचन-अच्छे वचन बोलना सम्यक् वचन है। जिन वचनोंसे दुसरेके हृदयको कष्ट पहँचे, जो वचन कट हों, दुसरेकी निन्दा करने वाले हों, अहित करने वाले हों, व्यर्थकी बकवाद हों ऐसे वचनोंको कभी नहीं बोलना चाहिए। सम्यक् कर्मान्त-अच्छे कर्मोका करना सम्यक् कर्मान्त है । हिंसा, चोरी, व्यभिचार आदि पाप कर्मोका त्याग करके निम्न पाँच कर्मों (पञ्चशील) का पालन करना प्रत्येक मनुष्यके लिए आवश्यक है । पञ्च शील ये है-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और सुरा (शराब) आदि मादक द्रव्योंका त्याग । ये पञ्चशील सर्व साधारणके लिए हैं। इसके अतिरिक्त भिक्षओंके लिए निम्न पञ्चशील और भी है। अपराह्न भोजनका त्याग, मालाधारणका त्याग, संगीतका त्याग, सुवर्णका त्याग और अमूल्य शय्याका त्याग । इसप्रकार सब मिलाकर दश शील हो जाते हैं । इन्हींका नाम सम्यक् कर्मान्त है। सम्यक् आजीव-अच्छी आजीविका अर्थात् बुरी आजीविकाको छोड़कर अच्छी आजीविकाके द्वारा शरीरका पोषण करना सम्यक् आजीव है शस्त्र, मांस, मद्य, विष आदिका व्यापार, तराजूको ठगी, डाका, लूटपाट आदिके द्वारा आजीविका करना निन्दनीय है । अतः इसे छोड़कर अहि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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