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________________ कारिका-३] तत्त्वदीपिका मुक्त पुरुषोंसे नितान्त भिन्न होता है । नित्य होनेसे वह भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों कालोंसे अनवच्छिन्न है । तथा वह गुरुओंका भी गुरु है। तारक ज्ञानका दाता भी ईश्वर ही है। ईश्वरके स्वरूपको समझनेके लिए क्लेश आदिका स्वरूप समझना आवश्यक है। ____ अनित्य, अपवित्र, दुःख तथा अनात्ममें क्रमशः नित्य, पवित्र, सुख तथा आत्मबुद्धि करना अविद्या है । दृक्शक्ति ( पुरुष ) तथा दर्शनशक्ति ( बुद्धि )में अभेदात्मक ज्ञान करना अस्मिता है।' सुखोत्पादक वस्तुओंमें लोभ या तृष्णाका होना राग' कहलाता है। दुःखोत्पादक वस्तुओंमें क्रोधका होना द्वेष है। क्षुद्र जन्तुसे लेकर विद्वान्को भी जो मृत्युका भय लगा रहता है वह अभिनिवेश है। इस प्रकार ये पाँच क्लेश हैं। शुक्ल ( पुण्य ), कृष्ण (पाप) और मिश्रके भेदसे कर्म तीन प्रकारका है। कर्मके फलको विपाक कहते हैं । विपाक जाति (जन्म), आयु और भोगरूप होता है। कर्मके संस्कारको आशय कहते हैं। आशयका तात्पर्य धर्म और अधर्मसे है। इस प्रकार ईश्वर क्लेश, कर्म, विपाक और आशयसे शून्य होता है। बौद्धदर्शन यह बात सर्वविदित है कि वर्तमान बौद्धधर्म तथा दर्शनके प्रवर्तक गौतम बुद्ध हैं । गौतम बुद्ध जैनधर्मके अन्तिम तर्थकर भगवान् महावीरके समकालीन थे। अन्य धर्मोके चौबीस अवतारोंकी तरह बौद्धधर्ममें भी चौबीस बुद्ध माने गये हैं इस बातका संकेत पालिके एक श्लोक से मिलता है, जिसके द्वारा भूत भविष्यत् और वर्तमानकालवर्ती बुद्धोंको नमस्कार किया गया है। १. दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतवास्मिता। -यो० सू० २।६। २. सुखानुशयी रागः -यो० सू० २१७ । ३. दुःखानुशयी द्वेषः -यो० सू० २।८ । ४. स्वरसवाही विदुषोऽपि तथारूढोऽभिनिवेशः -यो० सू० २।९। ५. सति मूले तद्विपाको जात्यायु गाः -यो० सू० २।१३। ६. आशेरते सांसारिकाः पुरुषा अस्मिन्नित्याशयः । कर्मणामाशयो धर्माधर्मी । -योगसूत्रवृत्ति पृ० ६७ । ७. ये च बुद्धा अतीता ये ये च बुद्धा अनागता। पच्चुप्पन्ना च ये बुद्धा अहं वन्दायि सव्वदा ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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