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________________ ३० आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१ बुद्ध युक्तिवादी और व्यावहारिक थे। यही कारण है कि अध्यात्म . शास्त्रकी गुत्थियोंकी शुष्क तर्ककी सहायतासे सुलझाना बुद्धका उद्देश्य नहीं था । बुद्धने भवरोगके रोगी प्राणियों के लिए उन बातोंको बतलाना आवश्यक समझा जिनसे उनको तात्कालिक लाभ हो । यहः जगत् नित्य है या अनित्य ? यह लोक सान्त है या अनन्त ? जीव तथा शरीर अभिन्न हैं या भिन्न ? इत्यादि प्रश्न किए जाने पर बौद्ध मौनालम्बन ही श्रेयस्कर समझते थे। ऐसे प्रश्नोंको उन्होंने अव्याकृत ( उत्तरके अयोग्य बतलाया है। भवरोगके रोगियोंकी चिकित्सा करना पहली आवश्यकता है। इस विषयमें उन्होंने एक सुन्दर दृष्टान्त दिया है । कोई व्यवित वाणसे आहत होकर व्याकुल हो रहा है। उस समय आपका कर्तव्य यह है कि तुरन्त उसे चिकित्सकके पास ले जाकर उसकी चिकित्सा करावें। यदि आप ऐसा न करके यह वाण किस दिशासे आया है, कितना बड़ा है, इसको मारने वाला क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य या शूद्र है' इत्यादि व्यर्थकी बातोंमें पड़ते हैं तो आप बुद्धिवादी और व्यावहारिक नहीं कहे जा सकते । इसीलिए बुद्धिने व्यावहारोपयोगो बातोंका ही उपदेश दिया। आर्यसत्य जिस प्रकार चिकित्साशास्त्रमें रोग, रोगका कारण, रोगका नाश तथा रोगनाशक औषधि ये चार बातें बतलायी जाती हैं, उसी प्रकार दर्शन शास्त्रमें संसार (दुःख), संसार हेतु (दुःखका कारण), मोक्ष (दुःखका नाश) तथा मोक्षका उपाय ये चार सत्य माने गये हैं। बुद्धने दुःख, समुदय, निरोध और मार्ग इन चार आर्यसत्योंको खोज निकाला । वैद्यकशास्त्रकी इस समताके कारण बुद्धको महाभिषक् (वैद्यराज) भी कहा गया है। इन सत्योंको आयं सत्य कहनेका तात्पर्य यह है कि आर्यजन (विद्वज्जन) ही इन सत्योंको प्राप्त कर सकते हैं । इतरजन इन सत्योंको प्राप्त करने में असमर्थ ही रहते हैं। आर्य जन आँखके समान हैं और अन्यजन करतल (हथेली) के समान हैं। जिस प्रकार ऊनका डोरा हथेली पर रखनेसे किसी प्रकारकी पीडाको उत्पन्न नहीं करता है किन्तु १. यथा चिकित्साशास्त्रं चतुर्दूह-रोगो रोगहेतुः आरोग्यं भैषज्यमिति । एवमिदमपि शास्त्रं तद् यथा संसारः संसारहेतुः मोक्षो मोक्षापाय इति । --व्यासभाष्य २०१५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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