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आप्तमीमांसा
परिच्छेद- १
भीतर जाना श्वास है और भीतरी वायुका बाहर निकाल देना उच्छ्वास है । चित्तकी एकाग्रता के लिए प्राणायामकी अत्यन्त आवश्यकता है । जब विभिन्न इन्द्रियाँ बाह्य विषयोंसे हटकर चित्तके समान निरुद्ध हो जाती हैं तब इसे 'प्रत्याहार' कहते हैं । प्रत्याहारके द्वारा इन्द्रियोंपर नियंत्रण हो जाता है । हृदयकमल आदि किसी देश में अथवा इष्टदेवकी मूर्ति आदि किसी बाह्य पदार्थ में चित्तको लगाना 'धारणा' है । उस देश-विशेषमें जब ध्येय वस्तुका ज्ञान एकाकाररूपसे प्रवाहित होता है तब इसे 'ध्यान' कहते हैं । विक्षेपोंका हटाकर ध्येयवस्तुमें चित्तका एकाग्र करना 'समाधि है ।' ध्यानावस्था में ध्यान, ध्येयवस्तु तथा ध्याता पृथक्-पृथक् प्रतीत होते हैं । किन्तु समाधिमें ध्यान, ध्याता और ध्येयकी एकता हो जाती है ।
समाधिके दो भेद हैं- सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात । सम्प्रज्ञात समाधि एकाग्र चित्तको वह अवस्था है जब चित्त ध्येयवस्तु के ऊपर चिरकाल तक स्थिर रहता है । इसका फल है प्रज्ञाका उदय । प्रज्ञा भी एक वृत्ति है । अत: जब चित्तकी प्रज्ञासहित समस्त वृत्तियाँ निरुद्ध हो जाती हैं तब असम्प्रज्ञात समाधि होती है । सम्प्रज्ञात समाधि में कोई-न-कोई आलम्बन बना रहता है, किन्तु असम्प्रज्ञात समाधिमें किसी भी वस्तुका आलम्बन नहीं रहता ।
ईश्वर
योगदर्शन में ईश्वरका स्थान महत्त्वपूर्ण है । तत्त्वसंख्या सांख्यके समान ही २५ है । केवल ईश्वरतत्त्व अधिक है । इसीलिये योग सेश्वर सांख्य कहलाता है । जो पुरुष क्लेश, कर्म, विपाक तथा आशयसे रहित है वह ईश्वर कहलाता है ।" अन्य मुक्त पुरुष पूर्वकालमें बन्धनमें रहता है तथा प्रकृतिलीनके भविष्यकालमें बन्धनकी संभावना रहती है । परन्तु ईश्वर तो सदा ही मुक्त और सदा ही ईश्वर है ।" अतः वह प्रकृतिलीन तथा
१. देशबन्धश्चित्तस्य धारणा ।
२. तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् ।
- यो०सू० ३।१ । — यो० सू० ३।२ ।
- यो० सू० १।२४ ।
३. सम्यगाधीयते एगाग्रीक्रियते विक्षेपान् परिहृत्य मनो यत्र स समाधिः । ४. क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेषः ईश्वरः । ५. यथा मुक्तस्य पूर्वाबन्धकोटि : प्रज्ञायते नैवमीश्वरस्य । स्योत्तरा बन्धकोटिः संभाव्यते नैवमीश्वरस्य । स तु ईश्वरः ।
यथा वा प्रकृतिलीनसदैव मुक्तः सदैव —यो० भा० १।२४ ।
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